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Monday, January 17, 2011

पश्चिमी रंग में रंगा भारत: नकलची भूरा बंदर ---------------------------------------- विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल, (से.नि.)

देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!

आज जिस तरह के राक्षसी अपराध तथा भ्रष्ट कारनामें भारत में देखने मिल रहे हैं तब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या भारत सभ्य है ? यही प्रश्न बीसवीं शती के प्रारंभ में विलियम आर्चर ने उठाया था और अपनी कट्टर सांप्रदायिक दृष्टि तथा औपनिवेशिक अहंकार में झूठे तर्कों से सिद्ध कर दिया था कि न केवल भारत असभ्य है, वरन हमेशा ही असभ्य था और जैसी कि दुखवादी तथा परलोकवादी उसकी संस्कृति है वह कभी सभ्य नहीं हो सकता। इसका पहला मुँहतोड़ जवाब तो संक्षेप में सर जान वुड्रफ़ ने दिया था और फ़िर बहुत ही विस्तार में श्री अरोबिन्दो ने दिया था जो कि उनकी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के आधार' में दिया गया है। वह पुस्तक उन दिनों से कहीं अधिक आज प्रासंगिक है क्योंकि हम आज स्वयं ही अपनी भाषा और इसलिये अपनी संस्कृति को छोड़कर पश्चिम की संस्कृति की भोंड़ी नकल करने में लगे हुए हैं और भौतिक प्रगति की चकमक करती चौँधियाती बत्तियों में डिस्को करते हुए मस्त मस्त गा रहे हैं।

श्री अरोबिन्दो, उस पुस्तक में, कहते हैं कि द्वन्द्व, संघर्ष और प्रतियोगिता आज भी अंतर्राष्ट्रीय नियामक हैं, और यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि सारा जगत पश्चात्य सभ्यता में दीक्षित हो जाएगा; किंतु उऩ्हें आशा थी कि इस संभावना पर भारत की छाया पड़ चली है - या तो भारत इतनी पूरी तरह से तर्कवादी एवं व्यवसायवादी हो जाएगा कि वह भारत ही नहीं रहेगा या वह अपने दृष्टांत तथा सांस्कृतिक प्रभाव के द्वारा पश्चिम की नयी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करता हुआ मानव को आध्यात्मिक बनाएगा। किन्तु आज लगभग सौ वर्षों के बाद उस आशा का कोई भी आधार नहीं बचा है। फ़िर वे स्वयं कहते हैं कि भारत को अपनी रक्षा करनी होगी।

मुख्य प्रश्न यह है कि क्या मानव जाति भविष्य तर्कप्रधान एवं यांत्रीकृत सभ्यता एवं संस्कृति में निहित है या आध्यात्मिक, बोधिमूलक और धार्मिक सभ्यता एवं संस्कृति में‌ है ?

खतरा इस बात का है कि पश्चिम का भोगवाद भारत की पुरानी सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था को इतना दबा सकते हैं कि वह टूटफ़ूट जाए, तब तर्कवाद में दीक्षित और पश्चिमी रंग में रंगा भारत पश्चिम की नकल करने वाला भूरा बंदर बन सकता है।

अत: एक प्रबल आक्रमणशील प्रतिरक्षा की आवश्यकता उत्पन्न होती है; आक्रमणशीलता का अर्थ है पुरानी संस्कृति में आधुनिकता लाना, और वह हमारी आध्यात्मिक संस्कृति में सहज ही संभव है। सब त्रुटियों के रहते और पतन के होते हुए भी भारतीय संस्कृति का मूल भाव, उसके श्रेष्ठ आदर्श आज भी केवल भारत के लिये नहीं अपितु समस्त मानव जाति के लिये संदेश लिये हुए हैं। और कुछ ऐसे सिद्ध आदर्शभूत विचार हैं जो एक अधिक विकसित मानवजाति के जीवन के अंग बन सकते हैं।

पाश्चात्य सभ्यता को अपनी सफ़ल आधुनिकता पर गर्व है। परंतु ऐसा बहुत कुछ है जिसे इसने अपने लाभों की उत्सुकता में गवां दिया है, जिसके कारण इसका जीवन क्षत विक्षत हो गया है। पैरिक्लीज़ यदि आज आए तब वह इसके भोगवाद, इसकी विकसित की हुई कितनी ही चीज़ों की अस्वाभाविक अतिरंजना और अस्वस्थता को देखकर घृणा से मुँह फ़ेर लेगा; . . .कि बर्बरता यहां अभी भी बची हुई है।. . .. . किन्तु तब भी अनेक महान आदर्शों का विकास भी हुआ है।

दूसरी और यदि उपनिष्त्कालीन ऋषि को लाया जाए तब उसे यह अनुभव होगा कि इस राष्ट्र और संस्कृति का सर्वनाश हो गया है।. . . कि मेरी जाति भूतकाल के बाह्य आचारों, खोखली और जीर्णशीर्ण वस्तुओं से चिपकी हुई है और अपने उदात्त तत्त्वों का नौदशमांश खो बैठी है। प्राचीनयुग की अधिक सरल और अधिक आध्यात्मिक सुव्यवस्था के स्थान पर उसे एक घबरा देने वाली, अस्तव्यस्त व्यवस्था दिखलाई देगी जिसका न कोई केन्द्र होगा और न व्यापक समन्वयकारी विचार। इस देश में श्रद्धा और आत्मविशास की इतनी कमी हो गई है कि इसके मनीषी बाहर से आयी हुई विजातीय संस्कृति के लिये अपने प्राचीन भावों और आदर्शों को मटियामेट करने के लिये लालायित हैं। किन्तु भारत की आत्मा मर नहीं गई है, उसे जगाने की आवश्यकता है। भूत काल के आदर्शों की महत्ता इस बात का आश्वासन देती है कि भविष्य के आदर्श और भी महान होंगे ।

यदि हम सभ्यता की परिभाषा इन शब्दों से करें कि यह आत्म, मन और देह का सामंजस्य है, तब यह आज कहीं भी विद्यमान नहीं है।

इसमें संदेह नहीं कि प्रत्येक विघटनकारी आक्रमण का प्रतिकार हमें पूरे बल से करना होगा। और हम क्या थे, क्या हैं और क्या बन सकते हैं, यह निश्चित करना होगा। हमें पश्चिम से और प्राचीन भारत दोनों से सीखना होगा।तुलना करने पर हमें पता चलेगा कि ऐसी चीजें नहीं के बराबर हैं जिनके कारण हमें‌ पश्चिम के सामने सिर नीचा करना पड़े, और ऐसी बहुत चीजें हैं जिनमें हम पश्चिम से ऊँचे उठ जाते हैं। हमारे जीवन संबन्धी सिद्धान्तों तथा सामाजिक प्रथाओं में कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो अपने आप में भ्रान्त हैं। अस्पृशों के साथ हमारा व्यवहार इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।

जब बाहर से आक्रमण कारी शक्तियां, इस्लाम और यूरोप भारत में घुस आए तब हिन्दू समाज संकीर्ण और निष्क्रिय आत्म संरक्षण और जीने भर की शक्ति से संतुष्ट रहा।. . और अब तो आत्म विस्तार किये बिना जीवन की रक्षा करना भी असंभव हो गया है।

यह दृष्टि हमारे सामने एक क्षेत्र खोल देती है पूर्व तथा पश्चिम के मिलन का, जो संस्कृतियों के संघर्ष के परे ले जाता है। मनुष्य के अंदर अवस्थित दिव्य आत्मा के अंदर बस एक ही लक्ष्य है, परंतु विभिन्न समुदाय पृथक पृथक दिशाओं में उस लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं। आत्मा की आधारभूत एकता को न जानने के कारण वे एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं और दावा करते हैं कि केवल उऩ्हीं का मार्ग मनुष्य जाति के लिये यथार्थ मार्ग है। यूरोपीय मनोवृत्ति संघर्ष के द्वारा विकास करने के सिद्धान्त को प्रथम स्थान देती है। भारतीय संस्कृति सामंजस्य के ऐसे सिद्धान्त को लेकर अग्रसर हुई है जिसने एकता में ही अपना आधार पाने की चेष्टा की है। सदा से आत्मा के सत्य को धारण करने वाले भारत को पश्चिम के अभिमानपूर्ण आक्रमण का प्रतिरोध करना होगा और अपने गंभीरतर सत्य को स्थापित करना होगा।

किसी जाति की संस्कृति उसकी जीवनशैली में अभिव्यक्त होती है। और वह अपने आपको तीन रूपों में प्रकट करती है। १ – विचार, आदर्श और आत्मिक शक्ति। २. - सृजन और कल्पना शक्ति; .- व्यावहारिक संगठन। किसी जाति का दर्शन उसकी जीवन विषयक चेतना और जगत विषयक दृष्टि का रूप उपस्थित करता है। किसी जाति का धर्म उसके ऊर्ध्वमुखी संकल्प को प्रकट करता है; उसके सर्वोच्च आदर्श को अभिव्यक्त करता है। किसी जाति का समाज और राजनीति एक बाह्य ढाँचा प्रदान करतीहैं। उसके धर्म, दर्शन, कला और समाज आदि कोई भी पीछे अवस्थित आत्मा को पूर्ण रूप से प्रकाशित नहीं करता यद्यपि वे सभी उसी से अपनी पूरी प्रेरणा ग्रहण करते हैं।वे सब मिलकर उसकी आत्मा, मन और देह का गठन करते हैं। धर्म द्वारा क्रियाशील बना हुआ दर्शन, और दर्शन द्वारा आलोकित धर्म ही समाज को जीवन देते हैं'ब्राह्मणों की सभ्यता' जिसे कहा जाता है उसका सही अभिप्राय यही है; पुरोहिती सभ्यता नहीं। संस्कृति के निर्माण में दार्शनिक विचारकों और धार्मिक मनीषियों का ही हाथ रहा है, यद्यपि वे सभी के सभी ब्राह्मणकुल में नहीं जन्मे थे। किन्तु फ़िर भी उसने उस पर एकाधिकार स्थापित नहीं किया।

हमारे सामने दो विकल्प हैं - . जीवन संबन्धी आध्यात्मिक एवं धर्म प्रधान 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' दृष्टिकोण, और २. जीवन का बौद्धिक और व्यावहारिक तर्क के द्वारा नियंत्रित भोगवादी दृष्टिकोण - इन दोनों में से मनुष्य जाति का सर्वोत्तम मार्गदर्शक कौन हो सकता है ?

भारत और चीन में दर्शन ने जीवन पर प्रभुत्व स्थापित कर रखा है, वहां पश्चिम में‌ यह ऐसा मह्त्व स्थापित करने में‌ कभी सफ़ल नहीं हुआ। पश्चिम में सर्वोच्च मनीषियों ने दर्शन का अनुशीलन किया है पर वह अनुशीलन जीवन से कुछ पृथक ही रहा है। पश्चिम की दृष्टि में अंतिम सत्य प्राय: ही विचारात्मक तथा तर्क बुद्धि के सत्य होते हैं। औसत पश्चिमवासी अपने मार्गदर्शक विचार दार्शनिक नहीं वरन प्रत्यक्षवादी एवं व्यावहारिक बुद्धि से ही ग्रहण करता है। भारतवासी का विश्वास है कि अंतिम सत्य आत्मा के ही सत्य हैं जो आंतरिक तथा बाह्य जीवन का हित कर सकते हैं। यदि वह अपने निष्कर्षों (डाग्माज़) को धार्मिक विश्वास के विशिष्ट अंग बनाने में समर्थ हुआ है तो इसका कारण यह है कि उऩ्हें वह एक ऐसे अनुभव पर प्रतिष्ठित करने में सफ़ल हुआ है जिसकी सत्यता की जाँच कोई भी व्यक्ति कर सकता है।

किसी भी संस्कृति की परीक्षा तीन कसौटियों से करना चाहिये, . उसकी‌ मूल भावना से, . उसकी सर्वोत्तम प्राप्ति से और ३.उसकी अपेक्षाकृत दीर्घ जीवन और नवीकरण की शक्तियों से। पश्चिम भारतीय दर्शन के मूल्यों के विरुद्ध अभियोग लगाता है कि यह इहलौकिक पुरुषार्थ से मुंह मोड़ता है। यह समस्त इच्छा- प्रधान व्यक्तित्व का उन्मूलन करता है। यह जगत को मिथ्या मानता है, दैनिक लाभों के प्रति अनासक्ति की शिक्षा देता है, अतीत और अनागतजीवनों की तुलना में वर्तमान जीवन की तुच्छता की शिक्षा देता है। यह सब कुप्रचार कितना गलत है इसके लिये एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा, ईशावास्य उपनिषद का एक ही मंत्र - 'विद्यांचाविद्यांच यस्तद्वेदोभयंसह। अविद्यया मृत्युंतीर्त्वा विद्ययाममृतमश्नुते।।" अर्थात सांसारिक विद्याओं से हम जीवन जीते हैं और अध्यात्म विद्या से आनंदरूपी अमृत प्राप्त करते हैं। अब समय आ गया है यह तोता रटंत बन्द हो जाना चाहिये कि भारतीय सभ्यता अव्यावहारिक, निवृत्तिमार्गी और जीवन विरोधी‌ है।

यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति ने मनुष्य के अन्दर की उस चीज को, जो लौकिक इच्छाओं के ऊपर उठ जाती है सदैव सर्वोच्च मह्त्व प्रदान किया है। प्राचीन आर्य संस्कृति समस्त मानव संभावनाओं को मान्यता देती थी, पर आध्यात्मिक संभावनाओं को वह सर्वोच्च स्थान प्रदान करती थी। और चार पुरुषार्थों, चार आश्रम और चार वर्णों की अपनी प्रणाली में उसने जीवन को क्रमबद्ध किया था। बौद्ध धर्म ने सबसे पहले सन्यास के आदर्श तथा भिक्षु प्रवृत्ति को अतिरंजित और विपुल रूप में प्रसारित किया, और जीवन के संतुलन को भंग कर डाला। अंत में शंकर का मायावाद आया, फ़लस्वरूप संसार को मिथ्या या आपेक्षिक मानकर उसकी अत्यधिक अवहेलना की जाने लगी। इसीलिये उऩ्हें प्रच्छन्न बौद्ध कहा गया। जनता ने इसे स्वीकार नहीं किया। जनता पर तो भक्ति प्रधान धर्मों का ही अधिक प्रभाव पड़ा है।

वैराग्य का थो.डा बहुत अंश लिए बिना कोई भी संस्कृति महान नहीं हो सकती; क्योंकि वैराग्य का अर्थ है आत्मत्याग और आत्म विजय जिनके द्वारा मनुष्य अपने निम्न आवेगों का दमन कर अपनी प्रकृति के महत्तर शिखरों की और आरोहण करता है। भारतीय वैराग्यवाद न तो कष्ट की विषादपूर्ण शिक्षा है और न शरीर का दु:खदायी निग्रह है, वरन वह तो आत्मा के उच्चतर आनंद के लिये एक उदात्त प्रयत्न है।

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कर्म और अनुभव के अंदर जो रूप ग्रहण करता है वही‌ भारतीय धर्म है; और संस्कृति उसका व्यावहारिक आधार है। क्या हमारे जीवन को शक्तिशाली और समुन्नत करने के लिये भारतीय संस्कृति में पर्याप्त शक्ति है?? किसी संस्कृति की जाँच करने के लिये इसकी तीन शक्तियों कि अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। (). जीवन संबन्धी उसके मौलिक विचार की शक्ति; (). उन रूपों, आदर्शों और व्यवहारों की शक्ति जो उसने जीवन को प्रदान किये हैं;(). उसके उद्देश्यों की कार्यान्विति के लिये प्रेरणा, उत्साह और शक्ति। दो चीजें यूरोपीय आदर्श में महत्व रखती हैं - मनुष्य के अपने पृथक व्यक्तित्व का विकास और संगठित समुन्नत राष्ट्रीय जीवन। व्यक्तिवाद तो व्यक्ति में, परिवार मे और समाज मे विघटन पैदा कर दुख ही पैदा करता है। राष्ट्रीय जीवन की समुन्नति का एक ही‌ माप है -भोग के साधनों की समृद्धि।

भारतीय आध्यात्मिक मुक्ति और सिद्धि का अर्थ है कि स्वयं मनुष्य एक विश्वमय आत्मा बन सकता है। किन्तु मनुष्य को सामान्य जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिये एक सजग प्रयास करते हुए, इसके सुखों को पूर्ण रूप से उपभोग करना होगा। उसके बाद ही कहीं हम आत्म जीवन की ओर बढ़ सकते हैं। आवेगों की क्रीड़ा के लिये अनुमति दी गई थी, उऩ्हें तब तक परिष्कृत और सुशिक्षित किया जाता था कि जब तक वे दिव्य स्तरों के योग्य नहीं बन जाते थे। एकमात्र मन और इंद्रियों के जीवन में आसक्त रहने वाले विराट अहंभाव को भारत राक्षस का स्वभाव मानता था। और मनुष्य पर तो एक और शक्ति अधिकार रखने का दावा करती है जो कामना, स्वार्थ और स्वेच्छा से ऊपर उठी हुई है और वह है धर्म की शक्ति। धर्म तो हमारे जीवन के सभी अंगों के कार्य-व्यापार का यथार्थ विधान है। कामना, स्वार्थ और सहजप्रवृत्ति के नियमहीन आवेग को मानवीय चरित्र का नेतृत्व नहीं करने दिया जा सकता।

भारतीय और यूरोपीय संस्कृति में‌ जो भेद है वह भारतीय सभ्यता के आध्यात्मिक उद्देश्यों से उत्पन्न होता है। इसने समस्त जीवन को आध्यात्मिकता की ओर मो.डने का प्रयास भी किया, इसलिये आवश्यक हो गया कि चिन्तन और कर्म को धार्मिक साँचे में ढाल दिया जाये और जीवन संबन्धी प्रत्येक बात को स्थायी रूप से धार्मिक भावना से भर दिया जाये, अत: एक विशिष्ट दार्शनिक संस्कृति की आवश्यकता हुई। जिस धार्मिक संस्कृति को हम आज हिन्दू धर्म से जानते हैं उसने इस उद्देश्य को केवल पूरा ही नहीं किया अपितु कई अन्य साम्प्रदायिक धर्मों के विपरीत उसने अपना कोई नाम नहीं रखा, क्योंकि उसने स्वयं कोई सांप्रदायिक सीमा नहीं बाँधी; उसने सारे संसार को अपना अनुयायी बनाने का दावा नहीं किया, किसी एकमात्र निर्दोष सिद्धान्त की प्रस्थापना नहीं की, मुक्ति का कॊई एक ही संकीर्ण पथ निश्चित नहीं किया; वह कोई मत या पंथ की अपेक्षा कहीं अधिक मानव के ईश्वरोन्मुख गति की एक सतत प्रगतिशील परंपरा थी। हिन्दू धर्म में एक मात्र स्थिर और सुनिश्चित वस्तु है सामाजिक विधान, किन्तु तब भी हिन्दू धर्म का सार आध्यात्मिक अनुशासन है, सामाजिक अनुशासन नहीं। यहां वर्ण का शासन है, न कि चर्च का; परंतु वर्ण भी किसी मनुष्य को उसके विश्वासों के लिये दण्ड नहीं दे सकता, न वह विधर्मिता पर रोक लगा सकता है और न एक नये क्रान्तिकारी सिद्धान्त या नये आध्यात्मिक नेता का अनुसरण करने से उसे मना कर सकता है। यदि वह ईसाई या मुसलमान को समाज से बहिष्कृत करता है तो वह उसे धार्मिक विश्वास या आचार के कारण नहीं वरन इसलिये कि वे उसकी सामाजिक व्यवस्था और नियम को अमान्य करते हैं।

पश्चिम ने इस उग्र एवं सर्वथा युक्तिहीन विचार का पोषण किया है कि समस्त मानव जाति के लिये एक ही धर्म होना चाहिये। मानुषी तर्कहीनता की यह भद्दी रचना अत्यधिक क्रूरता और उग्र धर्मांधता की जननी‌ है। जब कि भारत के धर्म प्रधान मन की स्वतंत्रता, नमनीयता और सरलता ने धर्म को सदैव चर्चों के समान उन परंपराओं एवं स्वेच्छाचारी पोप राज्यों जैसी किसी चीज का सूत्रपात करने से रोका है। जो जाति जीवन के विकास के साथ असीम धार्मिक स्वतंत्रता दे सकती है, उसे उच्च धार्मिक क्षमता का श्रेय देना ही होगा। आंतरिक अनुभव की एक महान शक्ति ने इसे आरंभ से ही वह वस्तु दी थी जिसकी ओर पश्चिम का मन अंधों की तरह अग्रसर हो रहा है -वह वस्तु है 'विश्व -चेतना, विश्व दृष्टि।

भारतीय धर्म का निरूपण पश्चिमी‌बुद्धि की जानी हुई परिभाषाओं में से किसी के द्वारा भी नहीं किया जा सकता। एकमेव सत्य को अनेकों पार्श्वों से देखते हुए भारतीय धर्म ने किसी भी पार्श्व के लिये अपने द्वार बन्द नहीं किये. यह मत-विश्वासात्मक धर्म बिलकुल नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक संस्कृति की एक विशाल, बहुमुखी, सदा एकत्व लाने वाली और सदा प्रगतिशील एवं आत्म विस्तारशील प्रणाली है।

परंतु आखिरकार हिंदू धर्म है क्या ? भारतीय धर्म उच्चतम एवं विशालतम आध्यत्मिक अनुभव के तीन मूल तत्वों पर प्रतिष्ठित है : . उपनिषदों का 'एकमेवाद्वितीयं' जो अनंत है; . मानव बुद्धि इसे अनंत प्रकार के सूत्रों में‌ प्रकट कर सकती है; . इन शाश्वत अनंत को खोजना-- यही भारत के धार्मिक मन का प्रथम सार्वजनीन विश्वास है। एकमेव परमेश्वर अपने आपको अपने गुणों के रूप में नाना नामों और देवताओं में प्रकट करते हैं। हमारे ज्ञान ने उच्चतम सत्ता और हमारी भौतिक जीवन प्रणाली के बीच कोई खाई नहीं खोदी थी। भारतीय धर्म का सार ऐसे जीवन को लक्ष्य बनाना है जिससे हम अज्ञान का, जो इस आत्मज्ञान को हमारे मन से छुपाए रखता है, अतिक्रम करके अपने अंत:स्थित भगवान को जान सकें।

धर्म और आध्यात्मिकता का कार्य ईश्वर और मनुष्य में, अर्थात अव्यक्त सत्यचेतना के और अज्ञानी मन के बीच मध्यस्थता करना है। अधिक लोग जीवन का संपूर्ण बल बाह्य सत्ता पर ही देते हैं या बौद्धिक सत्य या नैतिक बुद्धि एवं इच्छा शक्ति या रसात्मक सौन्दर्य को पश्चिम की तरह अध्यात्मिकता समझने की भूल करते हैं। कुछ धर्म बाह्य जीवन के रूप के साथ सामंजस्य करने की अपेक्षा कहीं अधिक उससे विद्रोह करते है। ईसाई साधना की मुख्य प्रवृत्ति भौतिक जीवन को तुच्छ समझने की ही‌ नहीं अपितु हमारी प्रकृति की बौद्धिक प्यास को तिरस्कृत एवं अवरुद्ध करने और सौन्दर्य संबन्धी प्यास पर अविश्वास करने की‌ भी है। उनके लिये नैतिक भावना की अभिवृद्धि अध्यात्म जीवन की एकमात्र मानसिक आवश्यकता है।

एक अर्ध आलोकित आध्यात्मिक लहर ईसाइयत के रूप में, पश्चिम भर में फ़ैल गई थी, उसके होते हुए भी पश्चिमी सभ्यता की वास्तविक प्रवृत्ति बौद्धिक, तार्किक, लौकिक और यहां तक कि जड़वादी‌ ही रही। भारतीय समाज की संगठन शक्ति अपूर्व थी, जिसने अपने अर्थ और कामनावाले सांसारिक जीवन के सामाजिक सामंजस्य का विकास किया, उसने अपने कर्म का परिचालन सदा ही पद पद पर नैतिक और धार्मिक विधान के अनुसार किया; - परंतु इस बात को उसने आँखों से कभी ओझल नहीं किया कि आध्यात्मिक मोक्ष ही हमारे जीवन के प्रयास का उच्चतम शिखर है।

दुर्भाग्यवश भारतीय संस्कृति का ह्रास हुआ। यदि भारतीय संस्कृति को जीवित रखना है तो उसके विकास को केवल पौराणिक प्रणाली को फ़िर से प्रचलित करने में नहीं, वरन उपनिषदों की ओर मुड़ना होगा।

भारतीय संस्कृति के विकास की आधुनिक अवस्था की तैयारी दीर्घकाल से हो रही है। इसमें एक तो यह भावना है कि मनुष्य मात्र अपना जीवन परमात्मा के महान सत्य पर प्रतिष्ठित करे। दूसरी यह कि उस सत्ता तक मात्र आरोहण ही नहीं वरन भगवत्चेतना के अवरोहण द्वारा मानव-प्रकृति के दिव्य-प्रकृति में रूपांतरण को भी संभव करे। यदि भगवत चेतना उसकी सत्ता के अंगों में जरा भी चरितार्थ हो जाए तो वह मानव जीवन को एक दिव्य अधिजीवन में परिणित कर देगा। इस के लिये जनसाधारण को हर क्षण धार्मिक प्रभाव में रहना चाहिये। और यह हमारी सुखद परंपरा रही‌ है। हमारी संस्कृति की प्रणाली का ढाँचा एक त्रिविध चौपदी से गठित था : प्रथम वृत्त में जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ काम और मोक्ष। दूसरे वृत्त में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था, तीसरे वृत्त में जीवन के चार आश्रम - विद्यार्थी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और स्वतंत्र समाजातीत मनुष्य। इसीलिये भारतवासियों के लिये समस्त जीवन ही धर्म है।

आध्यात्मिक ज्ञान पर प्रतिष्ठित जीवन का संपूर्ण व्यवहार भारतीय संस्कृति की दृष्टि में धर्म कहलाता है, जिसमें नैतिकता का विशेष मह्त्व होता है। धर्म के जटिल जाल में सबसे पहले आता है सामाजिक विधान, क्योंकि मनुष्य का जीवन कहीं अधिक अनिवार्यरूप में समष्टि के लिये ही‌ है, यद्यपि सर्वाधिक अनिवार्य रूप में वह आत्मा परमात्मा के लिये है। तब भी वैराग्यरूपी उच्च तपस्या के रहते, मनुष्य की सौंदर्यप्रिय या यहां तक कि सुखभोगवादी प्रवृत्ति पर भी कोई रुकावट नहीं लगायी। काव्य, नाटक, गीत, नृत्य, संगीत को प्रस्तुत किया गया, और उसे भी आत्मा के उत्कर्ष के रूप में। अध्यात्म सिद्धि के लिये प्रमुखत: तीन मार्ग बनें - बुद्धिप्रधान के लिये ज्ञान योग; कर्मठ नैतिक के लिये कर्मयोग; और भावुक सौन्दर्यप्रेमी एवं सुखभोगवादी के लिये प्रेम तथा भक्ति योग की रचना की गयी थी।

उससे महान संस्कृति क्या हो सकती है जो यह मानती है कि मनुष्य सनातन और अनंत को केवल जान ही नहीं सकता वरन आत्मज्ञान के द्वारा आध्यात्मिक और दिव्य भी बना सकता है? किसी भी महान संस्कृति का संपूर्ण लक्ष्य यह होता है कि वह मनुष्य को ज्ञान की ओर ले जाए, शुभ और एक्त्व के साथ सुन्दरता और समस्वरता के साथ द्वारा जीना सिखाए।

विज्ञान द्वारा विपुल आर्थिक उत्पादन ही मनुष्य को उसका दास, अथवा आर्थिक व्यवस्था -रूपी शरीर का एक अंग बना देता है - तब हमें पूछने का अधिकार है क्या यही हमारी संपूर्ण सत्ता है, और सभ्यता का स्वस्थ या संपूर्ण वर्तमान एक ऐसी बुद्धिमान आसुरिक बर्बरता प्रतीत होता था जिसका कि जर्मनी एक अत्यंत प्रशंसित और सफ़ल नायक था। क्या भारत के लिये यह ठीक नहीं है कि वह पश्चिम के अनुभव से शिक्षा भले ग्रहण कर ले पर पश्चिम का अनुकरण न कर अपनी‌मूल भावना और संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ और अत्यंत मौलिक तत्वों को विकसित करे ? बहुत समय तक यह सत्य था, और मैं‌ कहूंगा कि अब और अधिक सत्य है, कि भारतीय का कर्तव्य यही रहा है कि वह सभ्य बनाने वाली अंग्रेज की डोर में बँधा हुआ एक बंदर बन कर उसके ढोल की आवाज पर नाचा करे।

शंकर के सिद्धान्त में एक प्रवृत्ति अपनी चरम पर पहुँच गई जिसने भारतीय मन पर गहरी छाप डाली और अवश्य ही कुछ समय के लिये उसने सांसारिक जीवन की निषेधात्मक दृष्टि को स्थिर करने और विशालतर भारतीय आदर्श को विकृत करने की चेष्टा की। परंतु उनका सिद्धान्त महान वेदान्तिक शास्त्रों से निकलने वाला कोई अनिवार्य परिणाम बिलकुल नहीं है।

आखिर जीवन का अर्थ क्या है, हम अत्यंत पूर्ण और महान जीवन किसे कहते हैं? जीवन निश्चित ही मनुष्य की आत्मा की सक्रिय आत्म-अभिव्यक्ति है, और विचार, सृजन, प्रेम और कर्म करना तथा सफ़लता प्राप्त करना उसके संकल्प ही हैं। यह भी संभव है कि जीवन यापन के सभी साधारण करणोपकरण और परिस्थितियां विद्यमान हों, पर यदि जीवन महान अर्थात आध्यात्मिक आशाओं, अभीप्साओं और आदर्शों के द्वारा ऊँचा न उठा हो तब हम कह सकते हैं कि वह समाज वास्तव में जीवित नहीं है।

शून्य, दशमलव तथा स्थानमूल्य की अवधारणाओं के बल पर गणित में, तथा चरक, सुश्रुत, (विमान शास्त्र के रचयिता) भरद्वाज मुनि, आर्य भट, भास्कराचार्य प्रथम एवं द्वितीय, नागार्जुन, वरह मिहिर, आदि आदि के बल पर विज्ञान में यह देश अग्रणी रहा है, साहित्य में वेद, उपनिषद, गीता हैं और सर्वाधिक महान और उदात्त महाकाव्य रामायण है; जीवन को अद्भुत पूर्णता से अभिव्यक्त करने वाला महाकाव्य महाभारत है, कालिदास, माघ, भास, भारवि, बाणभट्ट आदि की अनुपम कृतियां हैं, पाली, प्राकृत, तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियां भी हैं। तूफ़ानी सदियों के समस्त विध्वंस के बाद जो कुछ बचा है वह तथा भरत मुनि के अनुपम 'नाट्यशास्त्र, चाणक्य के अर्थशास्त्र, भारत की कलाओं की सुदीर्घ परंपरा भारत की श्रेष्ठता का उद्घोष करते हैं। वैदिक काल में शूद्रों में से ऋषि उत्पन्न हुए। बाद के युग में बुद्ध और महावीर से लेकर रामानुज, चैतन्य, नानक रामदास, और तुकाराम, और फ़िर विवेकानन्द् और दयानंद तक की अविच्छिन्न परंपरा है। प्रामाणिक इतिहास चन्द्रगुप्त, चाणक्य, अशोक और गुप्तवंशी सम्राटों के प्रभावशाली व्यक्तित्वों से प्रारंभ होता है। प्राचीन भारत में गणतंत्र और जनतंत्र थे। साम्राज्य निर्माण का दीर्घकालीन प्रयत्न, पठानों और मुगलों के उत्थान और पतन से सन्लग्न तीव्र संघर्ष, राजपूती वीरता का आश्चर्यजनक इतिहास, आदि है। हमारे शूद्रों में से सम्मानित संत प्रकट हुए, जिसे यूरोप का पतनशील काल ( डार्क मैडीवियल एजैज़) कहा जाता है, वह काल संत साहित्य की कृपा से भारत का स्वर्णकाल है।

अतएव यह कथन कि भारत जाति में अपनी संस्कृति के कारण जीवन, इच्छाशक्ति और क्रियाशीलता का अभाव है. एक षड़यंत्र है। एक अत्यंत विचित्र और झूठ बात यह है कि इस दोष का कारण जीवन के प्रति वैराग्य को माना गया है - भारत सनातन में इतना व्यस्त था कि उसने उसने समय की जानबूझकर उपेक्षा की। यह एक और मिथ्या गाथा है।. . . . औसत यूरोपीय मन एक अहंकारमय अस्तित्व पर भीषण आग्रह के साथ बल देता है। जो शार्लमान ईसाई बनाने के लिये सैक्सनों का संहार करता है, वह अशोक के पश्चाताप को कैसे समझ सकता है। भारत ने निर्वैयक्तिकता को अधिक महत्व प्रदान किया है। निर्वैयक्तिता सत्ता का अभाव नहीं वरन नदी बनने के स्थान पर उसकी सागर के समान समग्रता है। पूर्णताप्राप्त मनुष्य विश्वमय हो जाता है, वह सहानुभूति और एकता की भावना में प्राणिमात्र का आलिंगन करता है।

यह सत्य है कि भारत किऩ्हीं कारणों से गुलाम हुआ और उसका पतन हुआ। किन्तु जैसा कि ऊपर दर्शाया गया है, उसमें‌ सदा ही एक महान दिव्य आध्यात्मिकता रहती है जिसके बल पर वह पुन: अपनी उच्चस्थिति प्राप्त कर सकता है। किन्तु इसके लिये एक ही खतरा है कि पश्चिम की रंगीन चकाचौंध में फ़ँसकर, उनकी भाषा और भोगवादी संस्कृति की नकल करता हुआ भारतीय कहीं भूरा बंदर ही न बन जाए।


Monday, January 10, 2011

लाल बहादुर शास्त्री आदर्श आरंभिक जीवन

लाल बहादुर शास्त्री आदर्श आरंभिक जीवन 

लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्म शारदा श्रीवास्तव प्रसाद, स्कूल अध्यापक व रामदुलारी देवी. के घर मुगलसराय(अंग्रेजी शासन के एकीकृत प्रान्त), में हुआ जो बादमें अलाहाबाद [1] के रेवेनुए ऑफिस में बाबू हो गए ! बालक जब 3 माह का था गंगा के घाट पर माँ की गोद से फिसल कर चरवाहे की टोकरी (cowherder's basket) में जा गिरा! चरवाहे, के कोई संतान नहीं थी उसने बालक को इश्वर का उपहार मान घर ले गया ! लाल बहादुर के माता पिता ने पुलिस में बालक के खोने की सुचना लिखी तो पुलिस ने बालक को खोज निकला और माता पिता को सौंप दिया[2].
बालक डेढ़ वर्ष का था जब पिता का साया उठने पर माता उसे व उसकी 2 बहनों के साथ लेकर मायके चली गई तथा वहीँ रहने लगी[3]. लाल बहादुर 10 वर्ष की आयु तक अपने नाना हजारी लाल के घर रहे! तथा मुगलसराय के रेलवे स्कुल में कक्षा IV शिक्षा ली, वहां उच्च विद्यालय न होने के कारण बालक को वाराणसी भेजा गया जहाँ वह अपने मामा के साथ रहे, तथा आगे की शिक्षा हरीशचन्द्र हाई स्कूल से प्राप्त की ! बनारस रहते एक बार लाल बहादुर अपने मित्रों के साथ गंगा के दूसरे तट मेला देखने गए! वापसी में नाव के लिए पैसे नहीं थे! किसी मित्र से उधार न मांग कर, बालक लाल बहादुर नदी में कूदते हुए उसे तैरकर पार कर गए[4].
बाल्यकाल में, लाल बहादुर पुताकें पढ़ना भाता था विशेषकर गुरु नानक के verses. He revered भारतीय राष्ट्रवादी, समाज सुधारक एवं स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक .वाराणसी 1915 में महात्मा  गाँधी का भाषण सुनने के पश्चात् लाल बहादुर ने अपना जीवन देश सेवा को समर्पित कर दिया[5] !  महात्मा  गाँधी के असहयोग आन्दोलन 1921 में लाल बहादुर ने निषेधाज्ञा का उलंघन करते प्रदर्शनों में भाग लिया ! जिस पर उन्हें बंदी बनाया गया किन्तु अवयस्क होने के कारण छूट गए[6] ! फिर वे काशी विद्यापीठ वाराणसी में भर्ती हुए! वहां के 4 वर्षों में वे डा. भगवान दास के lectures on philosophy से अत्यधिक प्रभावित हुए! तथा राष्ट्रवादी में भर्ती हो गए ! काशी विद्यापीठ से 1926, शिक्षा पूरी करने पर उन्हें शास्त्री की उपाधि से विभूषित किया गया जो विद्या पीठ की सनातक की उपाधि  है, और उनके नाम का अंश बन गया[3] ! वे सर्वेन्ट्स ऑफ़ द पीपल सोसाईटी आजीवन सदस्य बन कर मुजफ्फरपुर में हरिजनॉं के उत्थान में कार्य करना आरंभ कर दिया बाद में संस्था के अध्यक्ष भी बने[8].
1927 में, जब शास्त्री जी का शुभ विवाह मिर्ज़ापुर की ललिता देवी से संपन्न हुआ तो भारी भरकम दहेज़ का चलन था किन्तु शास्त्रीजी ने केवल एक चरखा व एक खादी  का कुछ गज का टुकड़ा  ही दहेज़ स्वीकार किया ! 1930 में,महात्मा  गाँधी के नमक सत्याग्रह के समय वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े, तथा ढाई वर्ष का कारावास हुआ[9]. एकबार, जब वे बंदीगृह में थे, उनकी एक बेटी गंभीर रूप से बीमार हुई तो उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग न लेने की शर्त पर 15 दिवस की सशर्त छुट्टी दी गयी ! परन्तु उनके घर पहुँचने से पूर्व ही बेटी का निधन हो चूका था ! बेटी के अंतिम संस्कार पूरे कर, वे अवधि[10] पूरी होने से पूर्व ही स्वयं कारावास लौट आये !  एक वर्ष पश्चात् उन्होंने एक सप्ताह के लिए घर जाने की अनुमति मांगी जब उनके पुत्र को influenza हो गया था ! अनुमति भी मिल गयी किन्तु पुत्र एक सप्ताह मैं निरोगी नहीं हो पाया तो अपने परिवार के अनुग्रहों (pleadings, के बाद भी अपने वचन के अनुसार वे कारावास लौट आये[10].
8 अगस्त 1942, महात्मा गाँधी ने मुंबई के गोवलिया टेंक में अंग्रेजों भारत छोडो की मांग पर भाषण दिया ! शास्त्री जी जेल से छूट कर सीधे पहुंचे जवाहरलाल नेहरु के hometown अल्लहाबाद और आनंद  भवन से एक सप्ताह स्वतंत्रता सैनानियों को निर्देश देते रहे ! कुछ दिन बाद वे फिर बंदी बनाकर कारवास भेज दिए गए और वहां रहे 1946 तक[12], शास्त्री जी कुलमिला कर 9 वर्ष जेल में रहे [13]. जहाँ वे पुस्तकें पड़ते रहे और इसप्रकार पाश्चात्य western philosophers, revolutionaries and social reformer की कार्य प्रणाली से अवगत होते रहे ! तथा मारी कुरी की autobiography का हिंदी अनुवाद भी किया[9].
आज़ादी के बाद 
भारत आजाद होने पर, शास्त्री जी अपने गृह प्रदेश उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव नियुक्त किये गए! गोविन्द बल्लभ पन्त के मंत्री मंडल के पुलिस व यातायात मंत्री बनकर पहली बार महिला कन्डक्टर की नियुक्ति की ! पुलिस को भीड़ नियंत्रण हेतु उन पर लाठी नहीं पानी की बौछार का उपयोग के आदेश दिए[14].
1951 में राज्य सभा सदस्य बने तथा कांग्रेस महासचिव के नाते चुनावी बागडोर संभाली, तो 1952, 1957 व 1962 में प्रत्याशी चयन, प्रचार द्वारा जवाहरलाल  नेहरु को संसदीय चुनावों में भारी बहुमत प्राप्त हुआ! केंद्र में 1951 से 1956 तक रेलवे व यातायात मंत्री रहे, 1956 में महबूबनगर की रेल दुर्घटना में 112 लोगों की मृत्यु के पश्चात् भेजे शास्त्रीजी के त्यागपत्र को नेहरुजी ने स्वीकार नहीं किया[15]! किन्तु 3 माह पश्चात् तमिलनाडू के अरियालुर दुर्घटना (मृतक 114) का नैतिक व संवैधानिक दायित्व मान कर दिए त्यागपत्र को स्वीकारते नेहरूजी ने कहा शास्त्री जी इस दुर्घटना के लिए दोषी नहीं[3] हैं किन्तु इससे संवैधानिक आदर्श स्थापित करने का आग्रह है ! शास्त्री जी के अभूत पूर्व निर्णय की की देश की जनता ने भूरी भूरी प्रशंसा की ! 
1957 में, शास्त्री जी संसदीय चुनाव के पश्चात् फिर मंत्रिमंडल में लिए गए, पहले यातायात व संचार मंत्री, बाद में वाणिज्य व उद्योग मंत्री[7] तथा 1961 में गृह मंत्री बने[3] तब क.संथानम[16] 
की अध्यक्षता में भ्रष्टाचार निवारण कमिटी गठित करने में भी विशेष भूमिका रही ! 
प्रधान मंत्री 
लाल बहादुर शास्त्री जी का नेतृत्व 
27 मई 1964 जवाहरलाल नेहरु की मृत्यु से उत्पन्न रिक्तता को 9 जून को भरा गया जब कांग्रेस अध्यक्ष, क.कामराज ने  प्रधान मंत्री पद के लिए एक मृदु भाषी, mild-mannered नेहरूवादी शास्त्री जी को उपयुक्त पाया तथा इसप्रकार पारंपरिक दक्षिणपंथी मोरारजी देसाई का विकल्प स्वीकार हुआ ! प्रधान मंत्री के रूप में राष्ट्र के नाम प्रथम सन्देश में शास्त्री जी ने को कहा[17]
“ हर राष्ट्र के जीवन में एक समय ऐसा आता है, जब वह इतिहास के चौराहे पर खड़ा होता है और उसे अपनी दिशा निर्धारित करनी होती है !.किन्तु हमें इसमें कोई कठिनाई या संकोच की आवश्यकता नहीं है! कोई इधर उधर देखना नहीं हमारा मार्ग सीधा व स्पष्ट है! देश में सामाजिक लोकतंत्र के निर्माण से सबको स्वतंत्रता व वैभवशाली बनाते हुए विश्व शांति तथा सभी देशों के साथ मित्रता ! ”
शास्त्री जी विभिन्न विचारों में सामंजस्य निपुणता के बाद भी अल्प अवधि के कारण देश के अर्थ संकट व खाद्य संकट का प्रभावी हल न कर पा रहे थे ! परन्तु जनता में उनकी लोकप्रियता व सम्मान अत्यधिक था जिससे उन्होंने देश में हरित क्रांति लाकर खाली गोदामों को भरे भंडार में बदल दिया ! किन्तु यह देखने के लिए वो जीवित न रहे, पाकिस्तान से 22 दिवसीय युद्ध में, लाल बहादुर शास्त्री जी ने नारा दिया "जय जवान जय किसान" देश के किसान को सैनिक समान बना कर देश की सुरक्षा के साथ अधिक अन्न उत्पादन पर बल दिया! हरित क्रांति व सफेद (दुग्ध) क्रांति[16] के सूत्र धार शास्त्री जी अक्तू.1964 में कैरा जिले में गए उससे प्रभावित होकर उन्होंने आनंद का देरी अनुभव से सरे देश को सीख दी तथा उनके प्रधानमंत्रित्व काल 1965 में नेशनल देरी डेवेलोपमेंट बोर्ड गठन हुआ ! 
समाजवादी होते हुए भी उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था को किसी का पिछलग्गू नहीं बनाया[16]. अपने कार्य काल 1965[7] में उन्होंने भ्रमण किया रूस, युगोस्लाविया, इंग्लैंड, कनाडा व बर्मा
पाकिस्तान से युद्ध 
भारत पाकिस्तानी युद्ध 1965
पाकिस्तान ने आधे कच्छ, पर अपना अधिकार जताते अपनी सेनाएं अगस्त 1965 में भेज दी, which skirmished भारतीय टेंक की कच्छ की मुठभेढ़ पर लोक सभा में, शास्त्री जी का वक्तव्य[17]:
“ अपने सीमित संसाधनों के उपयोग में हमने सदा आर्थिक विकास योजना तथा परियोजनाओं को प्रमुखता दी है, अत: किसी भी चीज को सही परिपेक्ष्य में देखने वाला कोई भी समझ सकता है कि भारत की रूचि सीमा पर अशांति अथवा संघर्ष का वातावरण बनाने में नहीं हो सकती !... इन परिस्थितियों में सरकार का दायित्व बिलकुल स्पष्ट है और इसका निर्वहन पूर्णत: प्रभावी ढंग से किया जायेगा ...यदि आवश्यकता पड़ी तो हम गरीबी में रह लेंगे किन्तु देश कि स्वतंत्रता पर आँच नहीं आने देंगे!  ”
  ( It would, therefore, be obvious for anyone who is prepared to look at things objectively that India can have no possible interest in provoking border incidents or in building up an atmosphere of strife... In these circumstances, the duty of Government is quite clear and this duty will be discharged fully and effectively... We would prefer to live in poverty for as long as necessary but we shall not allow our freedom to be subverted.)
पाकिस्तान कि आक्रामकता का केंद्र है कश्मीर. जब सशस्त्र घुसपैठिये पाकिस्तान से जम्मू एवं कश्मीर राज्य में घुसने आरंभ हुए, शास्त्री जी ने पाकिस्तान को यह स्पष्ट कर दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से दिया जायेगा[18] अभी सित.1965 में ही पाक सैनिकों सहित सशस्त्र घुसपैठियों ने सीमा पार करते समय सब अपने अनुकूल समझा होगा, किन्तु ऐसा था नहीं और भारत ने भी युद्ध विराम रेखा (अब नियंत्रण रेखा) के पार अपनी सेना भेज दी है तथा युद्ध होने पर पाकिस्तान को लाहौर के पास अंतर राष्ट्रीय सीमा पर करने कि चेतावनी भी दे दी है! टेंक महा संग्राम हुआ पंजाब में , and while पाकिस्तानी सेनाओं को कहीं लाभ हुआ, भारतीय सेना ने भी कश्मीर का हाजी पीर का महत्त्व पूर्ण स्थान अधिकार में ले लिया है, तथा पाकिस्तानी शहर लाहौर पर सीधे प्रहार करते रहे! 
17 सित.1965, भारत पाक युद्ध के चलते भारत को एक पत्र  चीन से मिला. पत्र में, चीन ने भारतीय सेना पर उनकी सीमा में सैन्य उपकरण लगाने का आरोप लगाते, युद्ध की धमकी दी अथवा उसे हटाने को कहा जिस पर शास्त्री जी ने घोषणा की "चीन का आरोप मिथ्या है! यदि वह हम पर आक्रमण करेगा तो हम अपनी अपनी संप्रभुता की रक्षा करने में सक्षम हैं"[19]. चीन ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया किन्तु भारत पाक युद्ध में दोनों ने बहुत कुछ खोया है! .
भारत पाक युद्ध समाप्त 23 सित.  1965 को संयुक्त राष्ट्र-की युद्ध विराम घोषणा से हुआ. इस अवसर पर प्र.मं.शास्त्री जी ने कहा[17]:
“ दो देशों की सेनाओं के बीच संघर्ष तो समाप्त हो गया है संयुक्त राष्ट्र- तथा सभी शांति चाहने वालों के लिए अधिक महत्वपूर्ण है is to bring to an end the deeper conflict... यह कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? हमारे विचार से, इसका एक ही हल है शांतिपूर्ण सहा अस्तित्व! भारत इसी सिद्धांत पर खड़ा है; पूरे विश्व का नेतृत्व करता रहा है! उनकी आर्थिक व राजनैतिक विविधता तथा मतभेद कितने भी गंभीर हों, देशों में शांतिपूर्ण सहस्तित्व संभव है !  ” 
ताश कन्द का काण्ड 
युद्ध विराम के बाद, शास्त्री जी तथा  पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुहम्मद अयूब खान वार्ता के लिए ताश कन्द (अखंडित रूस, वर्तमान उज्बेकिस्तान) अलेक्सेई कोस्य्गिन के बुलावे पर 10 जन.1966 को गए, ताश कन्द समझौते पर हस्ताक्षर किये! शास्त्री जी को संदेह जनक परिस्थितियों में मृतक बताते, अगले दिन/रात्रि के 1:32 बजे [7]  हृदयाघट का घोषित किया गया ! यह किसी सरकार के प्रमुख की सरकारी यात्रा पर विदेश में मृत्यु की अनहोनी घटना है[20]
शास्त्री जी की मृत्यु का रहस्य ?
शास्त्री जी की रहस्यमय मृत्यु पर उनकी विधवा पत्नी ललिता शास्त्री  कहती रही कि उनके पति को विष दिया गया है. कुछ उनके शव का नीला रंग, इसका प्रमाण बताते हैं.शास्त्री जी को विष देने के आरोपी रुसके रसोइये को बंदी भी बनाया गया किन्तु वो प्रमाण के अभाव में बच गया[21]
2009 में, जब अनुज धर, लेखक CIA's Eye on South Asia, RTI में  (Right to Information Act) प्रधान मंत्री कार्यालय से कहा, कि शास्त्री जी की मृत्यु का कारण सार्वजानिक किया जाये, विदेशों से सम्बन्ध बिगड़ने की बात कह कर टाल दिया गया देश में असंतोष फैलने व संसदीय विशेषाधिकार का उल्लंघन भी बताया गया[21]
PMO ने इतना तो स्वीकार किया कि शास्त्री जी कि मृत्यु से सम्बंधित एक पत्र कार्यालय के पास है! सरकार ने यह भी स्वीकार किया कि शव की रूस USSR में post-mortem examination जाँच नहीं की गई, किन्तु शास्त्री जी के वैयक्तिगत चिकित्सक  डा. र.न.चुघ ने जाँच कर रपट दी थी! किस प्रकार हर सच को छुपाने का मूल्य लगता है और सच का झूठ / झूठ का सच यहाँ सामान्य प्रक्रिया है कुछ भ हो सकता है[21]
स्मृतिचिन्ह 
आजीवन सदाशयता व विनम्रता के प्रतीक माने गए, शास्त्री जी एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, व दिल्ली के "विजय घाट" उनका स्मृति चिन्ह बनाया गया ! अनेकों शिक्षण सस्थान, शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक संसथान National Academy of Administration (Mussorie) तथा शास्त्री इंडो -कनाडियन इंस्टिट्यूट अदि उनको समर्पित हैं[22]
देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!