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Sunday, January 23, 2011

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन

  • नेता जी सुभाष के जन्म दिवस पर  उन्हें शत शंत नमन ...!! व सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं ! 
    1931 में कांग अध्यक्ष बने नेताजी, गाँधी का नेहरु प्रेम आड़े न आता; 
    तो देश का बंटवारा न होता, कश्मीर समस्या न होती, भ्रष्टाचार न होता, 
    देश समस्याओं का भंडार नहीं, विपुल सम्पदा का भंडार होता
    (स्विस में नहीं)
    -- तिलक संपादक युग दर्पण
  • नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बांग्ला: সুভাষ চন্দ্র বসু शुभाष चॉन्द्रो बोशु) (23 जनवरी 1897 - 18 अगस्त1945 विवादित) जो नेताजी नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय, अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द  का नारा, भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।
    1944 में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त  कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था कि कहा जाता हैं कि यदि उस समय नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत एक संघ राष्ट्र बना रहता और भारत का विभाजन न होता। स्वयं गाँधीजी ने इस बात को स्वीकार किया था। 
    [अनुक्रम 1 जन्म और कौटुंबिक जीवन2 स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य3 कारावास4 यूरोप प्रवास5 हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षप6 कांग्रेस के अध्यक्षपद से इस्तीफा7 फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना8 नजरकैद से पलायन9 नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात10 पूर्व एशिया में अभियान11 लापता होना और मृत्यु की खबर 11.1 टिप्पणी12 सन्दर्भ13 बाहरी कड़ियाँ,] 
    जन्म और कौटुंबिक जीवन
    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। कटक शहर के प्रसिद्द वकील जानकीनाथ बोस व कोलकाता के एक कुलीन दत्त परिवार से  प्रभावती की 6 बेटियाँ और 8 बेटे कुल मिलाकर 14 संतानें थी। जानकीनाथ बोस पहले सरकारी वकील बाद में निजी तथा  कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया व बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे।। 
     स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य
    कोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी, देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और मणिभवन में 20 जुलाई1921 को महात्मा गाँधी से मिले। कोलकाता जाकर दासबाबू से मिले उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। दासबाबू उन दिनों अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध गाँधीजी के असहयोग आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए।  1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए,कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का ढंग ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।
    बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को उत्तर देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम 8 सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। किन्तु  सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराजकी मांग से पीछे हटना स्वीकार नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, 1 वर्ष का समय दिया जाए। यदि 1 वर्ष में अंग्रेज़ सरकार ने यह मॉंग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज़ सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जब लाहौर में हुआ, तब निश्चित किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा।
    26 जनवरी1931 के दिन कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझोता किया और सब कैदीयों को रिहा किया गया। किन्तु अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा करने से माना कर दिया। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझोता तोड दे। किन्तु गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोडने को राजी नहीं थे। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी ने सरकार से बात की। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के नीतिओं से बहुत    रुष्ट हो गए। 
     कारावास
    १९३९ में बोस का आल इण्डिया कॉन्ग्रेस सभा में आगमन छाया सौजन्य:टोनी मित्रा
    अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 1921में 6 माह का कारावास हुआ।
    1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधिक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने भूल से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फॉंसी की सजा दी गयी। गोपिनाथ को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव मॉंगकर उसका अंतिम  संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष किया कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न केवल ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित कालखंड के लिए म्यानमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।
    5 नवंबर1925 के दिन, देशबंधू चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसें। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की सूचना मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी।
    मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। उन्हें तपेदिक हो गया। परंतू अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से मना कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे चिकित्सा के लिए यूरोप चले जाए। किन्तु सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि चिकित्सा के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। अन्त में परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यू हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू चिकित्सा के लिए डलहौजी चले गए।
    1930 में सुभाषबाबू कारावास में थे। तब उन्हे कोलकाता के महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हे रिहा करने पर बाध्य हो गयी।
    1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हे अलमोडा जेल में रखा गया। अलमोडा जेल में उनका स्वास्थ्य फिर से बिगड़  गया। वैद्यकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार चिकित्सा हेतु यूरोप जाने को सहमत हो गए।
     यूरोप प्रवास
    1933 से 1936 तक सुभाषबाबू यूरोप में रहे।
    यूरोप में सुभाषबाबू ने अपने स्वस्थ का ध्यान रखते समय, अपना कार्य जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।
    जब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया।
    बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिस में उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत गहरी निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। किन्तु विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया।
    विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। किन्तु उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उसपर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जितकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वह संपत्ती, गाँधीजी के हरिजन सेवा कार्य को भेट दे दी।
    1934 में सुभाषबाबू को उनके पिता मृत्त्यूशय्या पर होने की सूचना मिली। इसलिए वे हवाई जहाज से कराची होकर कोलकाता लौटे। कराची में उन्हे पता चला की उनके पिता की मृत्त्यू हो चुकी थी। कोलकाता पहुँचते ही, अंग्रेज सरकार ने उन्हे बंदी बना दिया और कई दिन जेल में रखकर, वापस यूरोप भेज दिया।
     हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षपद
    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी के साथ हरिपुरा मे सन 1938
    1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का 51वा अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया।
    इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो।
    अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे। सुभाषबाबू ने बेंगलोर में विख्यात वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी ली।
    1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया। सुभाषबाबू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चिनी जनता की सहायता के लिए, डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाषबाबू ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया, तब कई लोग उन्हे जापान के हस्तक और फासिस्ट कहने लगे। किन्तु इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाषबाबू न तो जापान के हस्तक थे, न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।
     कांग्रेस के अध्यक्षपद से त्यागपत्र
    1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, किन्तु गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी बीच युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्षपद की कार्यकाल में इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे।
    1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ती अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसी कोई दुसरी व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। किन्तु गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजीने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सितारमैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ ठाकूर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की विनंती की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। किन्तु गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझोता न हो पाने पर, बहुत वर्षों के बाद, कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव लडा गया।
    सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। किन्तु वास्तव में, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिल गए और पट्टाभी सितारमैय्या को 1377 मत मिलें। गाँधीजी के विरोध के बाद भी सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।
    किन्तु चुनाव के निकाल के साथ बात समाप्त  नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सितारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर, अपने साथीयों से कह दिया कि यदि वें सुभाषबाबू के नीतिओं से सहमत नहीं हैं, तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बनें रहें।
    1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज ज्वर से इतने रुग्न पड गए थे, कि उन्हे स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे। गाँधीजी के साथीयों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया।
    अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझोते के लिए बहुत कोशिश की। किन्तु गाँधीजी और उनके साथीयों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिती ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। अन्त में तंग आकर, 29 अप्रैल1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से त्यागपत्र दे दिया।
     फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना
    3 मई1939 के दिन, सुभाषबाबू नें कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाला गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।
    द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही, फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए, जनजागृती शुरू की। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हे रिहा करने पर बाध्य करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपोषण शुरू कर दिया। तब सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। किन्तु अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी, कि सुभाषबाबू युद्ध काल में मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हे उनके ही घर में नजरकैद कर के रखा।
     नजरकैद से पलायन
    नजरकैद से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाडी से कोलकाता से दूर, गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेल्वे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकडकर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर शाह ने उनकी भेंट, कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कर दी। भगतराम तलवार के साथ में, सुभाषबाबू पेशावर से अफ़्ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे। पहाडियों में पैदल चलते हुए उन्होने यह यात्रा कार्य पूरा किया।
    काबुल में सुभाषबाबू 2 माह तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में असफल रहने पर, उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने का प्रयास किया। इटालियन दूतावास में उनका प्रयास सफल रहा। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। अन्त में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर, सुभाषबाबू काबुल से रेल्वे से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होकर जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे। 
    नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात
    बर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी बीच सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।
    अंतत: 29 मई1942 के दिन, सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। किन्तु हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
    कई वर्ष पूर्व हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस पुस्तक में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर क्षमा माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
    अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हे कुछ और नहीं मिलने वाला हैं। इसलिए 8 मार्च1943 के दिन, जर्मनी के कील बंदर में, वे अपने साथी अबिद हसन सफरानी के साथ, एक जर्मन पनदुब्बी में बैठकर, पूर्व एशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनदुब्बी तक पहुँच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में, किसी भी दो देशों की नौसेनाओ की पनदुब्बीयों के बीच, नागरिको की यह एकमात्र बदली हुई थी। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।
     पूर्व एशिया में अभियान
    स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार
    पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम, वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया।
    जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात, नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।
    21 अक्तूबर1943 के दिन, नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे स्वयं इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल 9 देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए।
    आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे हुए भारतीय युद्धबंदियों को भर्ती किया गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतो के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।
    पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थायिक भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और उसे आर्थिक सहायता करने का आवाहन किया। उन्होने अपने आवाहन में संदेश दिया तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा
    द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली  का नारा दिया। दोनो फौजो ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। यह द्वीप अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद के अनुशासन में रहें। नेताजी ने इन द्वीपों का शहीद और स्वराज द्वीप  ऐसा नामकरण किया। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। किन्तु बाद में अंग्रेजों का पलडा भारी पडा और दोनो फौजो को पिछे हटना पडा।
    जब आज़ाद हिन्द फौज पिछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लडकियों के साथ सैकडो मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।
    6 जुलाई1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्येश्य के बारे में बताया।अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा । ।
     लापता होना और मृत्यु की खबर
    द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना आवश्यक था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था।
    18 अगस्त1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस यात्रा के बीच वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
    23 अगस्त1945 को जापान की दोमेई खबर संस्था ने विश्व को सूचना दी, कि 18 अगस्त के दिन, नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी।
    दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्च्हय किया, किन्तु वे सफल नहीं रहे। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।
    स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में 2 बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह परिणाम निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। किन्तु जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की सूचना थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।
    1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई प्रमाण नहीं हैं। किन्तु भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
    18 अगस्त1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।
    देश के अलग-अलग भागों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं किन्तु इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी। 
    टिप्पणी
    • कोई भी व्यक्ति कष्ट और बलिदान के माध्यम असफल नहीं हो सकता, यदि वह पृथ्वी पर कोई चीज गंवाता भी है तो अमरत्व का वारिस बन कर काफी कुछ प्राप्त कर लेगा।...सुभाष चंद्र बोस
    • एक मामले में अंग्रेज बहुत भयभीत थे। सुभाषचंद्र बोस, जो उनके सबसे अधिक दृढ़ संकल्प और संसाधन वाले भारतीय शत्रु थे, ने कूच कर दिया था।...क्रिस्टॉफर बेली और टिम हार्पर 
    • सन्दर्भ

देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!

Monday, January 17, 2011

पश्चिमी रंग में रंगा भारत: नकलची भूरा बंदर ---------------------------------------- विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल, (से.नि.)

देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!

आज जिस तरह के राक्षसी अपराध तथा भ्रष्ट कारनामें भारत में देखने मिल रहे हैं तब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या भारत सभ्य है ? यही प्रश्न बीसवीं शती के प्रारंभ में विलियम आर्चर ने उठाया था और अपनी कट्टर सांप्रदायिक दृष्टि तथा औपनिवेशिक अहंकार में झूठे तर्कों से सिद्ध कर दिया था कि न केवल भारत असभ्य है, वरन हमेशा ही असभ्य था और जैसी कि दुखवादी तथा परलोकवादी उसकी संस्कृति है वह कभी सभ्य नहीं हो सकता। इसका पहला मुँहतोड़ जवाब तो संक्षेप में सर जान वुड्रफ़ ने दिया था और फ़िर बहुत ही विस्तार में श्री अरोबिन्दो ने दिया था जो कि उनकी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के आधार' में दिया गया है। वह पुस्तक उन दिनों से कहीं अधिक आज प्रासंगिक है क्योंकि हम आज स्वयं ही अपनी भाषा और इसलिये अपनी संस्कृति को छोड़कर पश्चिम की संस्कृति की भोंड़ी नकल करने में लगे हुए हैं और भौतिक प्रगति की चकमक करती चौँधियाती बत्तियों में डिस्को करते हुए मस्त मस्त गा रहे हैं।

श्री अरोबिन्दो, उस पुस्तक में, कहते हैं कि द्वन्द्व, संघर्ष और प्रतियोगिता आज भी अंतर्राष्ट्रीय नियामक हैं, और यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि सारा जगत पश्चात्य सभ्यता में दीक्षित हो जाएगा; किंतु उऩ्हें आशा थी कि इस संभावना पर भारत की छाया पड़ चली है - या तो भारत इतनी पूरी तरह से तर्कवादी एवं व्यवसायवादी हो जाएगा कि वह भारत ही नहीं रहेगा या वह अपने दृष्टांत तथा सांस्कृतिक प्रभाव के द्वारा पश्चिम की नयी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करता हुआ मानव को आध्यात्मिक बनाएगा। किन्तु आज लगभग सौ वर्षों के बाद उस आशा का कोई भी आधार नहीं बचा है। फ़िर वे स्वयं कहते हैं कि भारत को अपनी रक्षा करनी होगी।

मुख्य प्रश्न यह है कि क्या मानव जाति भविष्य तर्कप्रधान एवं यांत्रीकृत सभ्यता एवं संस्कृति में निहित है या आध्यात्मिक, बोधिमूलक और धार्मिक सभ्यता एवं संस्कृति में‌ है ?

खतरा इस बात का है कि पश्चिम का भोगवाद भारत की पुरानी सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था को इतना दबा सकते हैं कि वह टूटफ़ूट जाए, तब तर्कवाद में दीक्षित और पश्चिमी रंग में रंगा भारत पश्चिम की नकल करने वाला भूरा बंदर बन सकता है।

अत: एक प्रबल आक्रमणशील प्रतिरक्षा की आवश्यकता उत्पन्न होती है; आक्रमणशीलता का अर्थ है पुरानी संस्कृति में आधुनिकता लाना, और वह हमारी आध्यात्मिक संस्कृति में सहज ही संभव है। सब त्रुटियों के रहते और पतन के होते हुए भी भारतीय संस्कृति का मूल भाव, उसके श्रेष्ठ आदर्श आज भी केवल भारत के लिये नहीं अपितु समस्त मानव जाति के लिये संदेश लिये हुए हैं। और कुछ ऐसे सिद्ध आदर्शभूत विचार हैं जो एक अधिक विकसित मानवजाति के जीवन के अंग बन सकते हैं।

पाश्चात्य सभ्यता को अपनी सफ़ल आधुनिकता पर गर्व है। परंतु ऐसा बहुत कुछ है जिसे इसने अपने लाभों की उत्सुकता में गवां दिया है, जिसके कारण इसका जीवन क्षत विक्षत हो गया है। पैरिक्लीज़ यदि आज आए तब वह इसके भोगवाद, इसकी विकसित की हुई कितनी ही चीज़ों की अस्वाभाविक अतिरंजना और अस्वस्थता को देखकर घृणा से मुँह फ़ेर लेगा; . . .कि बर्बरता यहां अभी भी बची हुई है।. . .. . किन्तु तब भी अनेक महान आदर्शों का विकास भी हुआ है।

दूसरी और यदि उपनिष्त्कालीन ऋषि को लाया जाए तब उसे यह अनुभव होगा कि इस राष्ट्र और संस्कृति का सर्वनाश हो गया है।. . . कि मेरी जाति भूतकाल के बाह्य आचारों, खोखली और जीर्णशीर्ण वस्तुओं से चिपकी हुई है और अपने उदात्त तत्त्वों का नौदशमांश खो बैठी है। प्राचीनयुग की अधिक सरल और अधिक आध्यात्मिक सुव्यवस्था के स्थान पर उसे एक घबरा देने वाली, अस्तव्यस्त व्यवस्था दिखलाई देगी जिसका न कोई केन्द्र होगा और न व्यापक समन्वयकारी विचार। इस देश में श्रद्धा और आत्मविशास की इतनी कमी हो गई है कि इसके मनीषी बाहर से आयी हुई विजातीय संस्कृति के लिये अपने प्राचीन भावों और आदर्शों को मटियामेट करने के लिये लालायित हैं। किन्तु भारत की आत्मा मर नहीं गई है, उसे जगाने की आवश्यकता है। भूत काल के आदर्शों की महत्ता इस बात का आश्वासन देती है कि भविष्य के आदर्श और भी महान होंगे ।

यदि हम सभ्यता की परिभाषा इन शब्दों से करें कि यह आत्म, मन और देह का सामंजस्य है, तब यह आज कहीं भी विद्यमान नहीं है।

इसमें संदेह नहीं कि प्रत्येक विघटनकारी आक्रमण का प्रतिकार हमें पूरे बल से करना होगा। और हम क्या थे, क्या हैं और क्या बन सकते हैं, यह निश्चित करना होगा। हमें पश्चिम से और प्राचीन भारत दोनों से सीखना होगा।तुलना करने पर हमें पता चलेगा कि ऐसी चीजें नहीं के बराबर हैं जिनके कारण हमें‌ पश्चिम के सामने सिर नीचा करना पड़े, और ऐसी बहुत चीजें हैं जिनमें हम पश्चिम से ऊँचे उठ जाते हैं। हमारे जीवन संबन्धी सिद्धान्तों तथा सामाजिक प्रथाओं में कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो अपने आप में भ्रान्त हैं। अस्पृशों के साथ हमारा व्यवहार इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।

जब बाहर से आक्रमण कारी शक्तियां, इस्लाम और यूरोप भारत में घुस आए तब हिन्दू समाज संकीर्ण और निष्क्रिय आत्म संरक्षण और जीने भर की शक्ति से संतुष्ट रहा।. . और अब तो आत्म विस्तार किये बिना जीवन की रक्षा करना भी असंभव हो गया है।

यह दृष्टि हमारे सामने एक क्षेत्र खोल देती है पूर्व तथा पश्चिम के मिलन का, जो संस्कृतियों के संघर्ष के परे ले जाता है। मनुष्य के अंदर अवस्थित दिव्य आत्मा के अंदर बस एक ही लक्ष्य है, परंतु विभिन्न समुदाय पृथक पृथक दिशाओं में उस लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं। आत्मा की आधारभूत एकता को न जानने के कारण वे एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं और दावा करते हैं कि केवल उऩ्हीं का मार्ग मनुष्य जाति के लिये यथार्थ मार्ग है। यूरोपीय मनोवृत्ति संघर्ष के द्वारा विकास करने के सिद्धान्त को प्रथम स्थान देती है। भारतीय संस्कृति सामंजस्य के ऐसे सिद्धान्त को लेकर अग्रसर हुई है जिसने एकता में ही अपना आधार पाने की चेष्टा की है। सदा से आत्मा के सत्य को धारण करने वाले भारत को पश्चिम के अभिमानपूर्ण आक्रमण का प्रतिरोध करना होगा और अपने गंभीरतर सत्य को स्थापित करना होगा।

किसी जाति की संस्कृति उसकी जीवनशैली में अभिव्यक्त होती है। और वह अपने आपको तीन रूपों में प्रकट करती है। १ – विचार, आदर्श और आत्मिक शक्ति। २. - सृजन और कल्पना शक्ति; .- व्यावहारिक संगठन। किसी जाति का दर्शन उसकी जीवन विषयक चेतना और जगत विषयक दृष्टि का रूप उपस्थित करता है। किसी जाति का धर्म उसके ऊर्ध्वमुखी संकल्प को प्रकट करता है; उसके सर्वोच्च आदर्श को अभिव्यक्त करता है। किसी जाति का समाज और राजनीति एक बाह्य ढाँचा प्रदान करतीहैं। उसके धर्म, दर्शन, कला और समाज आदि कोई भी पीछे अवस्थित आत्मा को पूर्ण रूप से प्रकाशित नहीं करता यद्यपि वे सभी उसी से अपनी पूरी प्रेरणा ग्रहण करते हैं।वे सब मिलकर उसकी आत्मा, मन और देह का गठन करते हैं। धर्म द्वारा क्रियाशील बना हुआ दर्शन, और दर्शन द्वारा आलोकित धर्म ही समाज को जीवन देते हैं'ब्राह्मणों की सभ्यता' जिसे कहा जाता है उसका सही अभिप्राय यही है; पुरोहिती सभ्यता नहीं। संस्कृति के निर्माण में दार्शनिक विचारकों और धार्मिक मनीषियों का ही हाथ रहा है, यद्यपि वे सभी के सभी ब्राह्मणकुल में नहीं जन्मे थे। किन्तु फ़िर भी उसने उस पर एकाधिकार स्थापित नहीं किया।

हमारे सामने दो विकल्प हैं - . जीवन संबन्धी आध्यात्मिक एवं धर्म प्रधान 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' दृष्टिकोण, और २. जीवन का बौद्धिक और व्यावहारिक तर्क के द्वारा नियंत्रित भोगवादी दृष्टिकोण - इन दोनों में से मनुष्य जाति का सर्वोत्तम मार्गदर्शक कौन हो सकता है ?

भारत और चीन में दर्शन ने जीवन पर प्रभुत्व स्थापित कर रखा है, वहां पश्चिम में‌ यह ऐसा मह्त्व स्थापित करने में‌ कभी सफ़ल नहीं हुआ। पश्चिम में सर्वोच्च मनीषियों ने दर्शन का अनुशीलन किया है पर वह अनुशीलन जीवन से कुछ पृथक ही रहा है। पश्चिम की दृष्टि में अंतिम सत्य प्राय: ही विचारात्मक तथा तर्क बुद्धि के सत्य होते हैं। औसत पश्चिमवासी अपने मार्गदर्शक विचार दार्शनिक नहीं वरन प्रत्यक्षवादी एवं व्यावहारिक बुद्धि से ही ग्रहण करता है। भारतवासी का विश्वास है कि अंतिम सत्य आत्मा के ही सत्य हैं जो आंतरिक तथा बाह्य जीवन का हित कर सकते हैं। यदि वह अपने निष्कर्षों (डाग्माज़) को धार्मिक विश्वास के विशिष्ट अंग बनाने में समर्थ हुआ है तो इसका कारण यह है कि उऩ्हें वह एक ऐसे अनुभव पर प्रतिष्ठित करने में सफ़ल हुआ है जिसकी सत्यता की जाँच कोई भी व्यक्ति कर सकता है।

किसी भी संस्कृति की परीक्षा तीन कसौटियों से करना चाहिये, . उसकी‌ मूल भावना से, . उसकी सर्वोत्तम प्राप्ति से और ३.उसकी अपेक्षाकृत दीर्घ जीवन और नवीकरण की शक्तियों से। पश्चिम भारतीय दर्शन के मूल्यों के विरुद्ध अभियोग लगाता है कि यह इहलौकिक पुरुषार्थ से मुंह मोड़ता है। यह समस्त इच्छा- प्रधान व्यक्तित्व का उन्मूलन करता है। यह जगत को मिथ्या मानता है, दैनिक लाभों के प्रति अनासक्ति की शिक्षा देता है, अतीत और अनागतजीवनों की तुलना में वर्तमान जीवन की तुच्छता की शिक्षा देता है। यह सब कुप्रचार कितना गलत है इसके लिये एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा, ईशावास्य उपनिषद का एक ही मंत्र - 'विद्यांचाविद्यांच यस्तद्वेदोभयंसह। अविद्यया मृत्युंतीर्त्वा विद्ययाममृतमश्नुते।।" अर्थात सांसारिक विद्याओं से हम जीवन जीते हैं और अध्यात्म विद्या से आनंदरूपी अमृत प्राप्त करते हैं। अब समय आ गया है यह तोता रटंत बन्द हो जाना चाहिये कि भारतीय सभ्यता अव्यावहारिक, निवृत्तिमार्गी और जीवन विरोधी‌ है।

यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति ने मनुष्य के अन्दर की उस चीज को, जो लौकिक इच्छाओं के ऊपर उठ जाती है सदैव सर्वोच्च मह्त्व प्रदान किया है। प्राचीन आर्य संस्कृति समस्त मानव संभावनाओं को मान्यता देती थी, पर आध्यात्मिक संभावनाओं को वह सर्वोच्च स्थान प्रदान करती थी। और चार पुरुषार्थों, चार आश्रम और चार वर्णों की अपनी प्रणाली में उसने जीवन को क्रमबद्ध किया था। बौद्ध धर्म ने सबसे पहले सन्यास के आदर्श तथा भिक्षु प्रवृत्ति को अतिरंजित और विपुल रूप में प्रसारित किया, और जीवन के संतुलन को भंग कर डाला। अंत में शंकर का मायावाद आया, फ़लस्वरूप संसार को मिथ्या या आपेक्षिक मानकर उसकी अत्यधिक अवहेलना की जाने लगी। इसीलिये उऩ्हें प्रच्छन्न बौद्ध कहा गया। जनता ने इसे स्वीकार नहीं किया। जनता पर तो भक्ति प्रधान धर्मों का ही अधिक प्रभाव पड़ा है।

वैराग्य का थो.डा बहुत अंश लिए बिना कोई भी संस्कृति महान नहीं हो सकती; क्योंकि वैराग्य का अर्थ है आत्मत्याग और आत्म विजय जिनके द्वारा मनुष्य अपने निम्न आवेगों का दमन कर अपनी प्रकृति के महत्तर शिखरों की और आरोहण करता है। भारतीय वैराग्यवाद न तो कष्ट की विषादपूर्ण शिक्षा है और न शरीर का दु:खदायी निग्रह है, वरन वह तो आत्मा के उच्चतर आनंद के लिये एक उदात्त प्रयत्न है।

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कर्म और अनुभव के अंदर जो रूप ग्रहण करता है वही‌ भारतीय धर्म है; और संस्कृति उसका व्यावहारिक आधार है। क्या हमारे जीवन को शक्तिशाली और समुन्नत करने के लिये भारतीय संस्कृति में पर्याप्त शक्ति है?? किसी संस्कृति की जाँच करने के लिये इसकी तीन शक्तियों कि अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। (). जीवन संबन्धी उसके मौलिक विचार की शक्ति; (). उन रूपों, आदर्शों और व्यवहारों की शक्ति जो उसने जीवन को प्रदान किये हैं;(). उसके उद्देश्यों की कार्यान्विति के लिये प्रेरणा, उत्साह और शक्ति। दो चीजें यूरोपीय आदर्श में महत्व रखती हैं - मनुष्य के अपने पृथक व्यक्तित्व का विकास और संगठित समुन्नत राष्ट्रीय जीवन। व्यक्तिवाद तो व्यक्ति में, परिवार मे और समाज मे विघटन पैदा कर दुख ही पैदा करता है। राष्ट्रीय जीवन की समुन्नति का एक ही‌ माप है -भोग के साधनों की समृद्धि।

भारतीय आध्यात्मिक मुक्ति और सिद्धि का अर्थ है कि स्वयं मनुष्य एक विश्वमय आत्मा बन सकता है। किन्तु मनुष्य को सामान्य जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिये एक सजग प्रयास करते हुए, इसके सुखों को पूर्ण रूप से उपभोग करना होगा। उसके बाद ही कहीं हम आत्म जीवन की ओर बढ़ सकते हैं। आवेगों की क्रीड़ा के लिये अनुमति दी गई थी, उऩ्हें तब तक परिष्कृत और सुशिक्षित किया जाता था कि जब तक वे दिव्य स्तरों के योग्य नहीं बन जाते थे। एकमात्र मन और इंद्रियों के जीवन में आसक्त रहने वाले विराट अहंभाव को भारत राक्षस का स्वभाव मानता था। और मनुष्य पर तो एक और शक्ति अधिकार रखने का दावा करती है जो कामना, स्वार्थ और स्वेच्छा से ऊपर उठी हुई है और वह है धर्म की शक्ति। धर्म तो हमारे जीवन के सभी अंगों के कार्य-व्यापार का यथार्थ विधान है। कामना, स्वार्थ और सहजप्रवृत्ति के नियमहीन आवेग को मानवीय चरित्र का नेतृत्व नहीं करने दिया जा सकता।

भारतीय और यूरोपीय संस्कृति में‌ जो भेद है वह भारतीय सभ्यता के आध्यात्मिक उद्देश्यों से उत्पन्न होता है। इसने समस्त जीवन को आध्यात्मिकता की ओर मो.डने का प्रयास भी किया, इसलिये आवश्यक हो गया कि चिन्तन और कर्म को धार्मिक साँचे में ढाल दिया जाये और जीवन संबन्धी प्रत्येक बात को स्थायी रूप से धार्मिक भावना से भर दिया जाये, अत: एक विशिष्ट दार्शनिक संस्कृति की आवश्यकता हुई। जिस धार्मिक संस्कृति को हम आज हिन्दू धर्म से जानते हैं उसने इस उद्देश्य को केवल पूरा ही नहीं किया अपितु कई अन्य साम्प्रदायिक धर्मों के विपरीत उसने अपना कोई नाम नहीं रखा, क्योंकि उसने स्वयं कोई सांप्रदायिक सीमा नहीं बाँधी; उसने सारे संसार को अपना अनुयायी बनाने का दावा नहीं किया, किसी एकमात्र निर्दोष सिद्धान्त की प्रस्थापना नहीं की, मुक्ति का कॊई एक ही संकीर्ण पथ निश्चित नहीं किया; वह कोई मत या पंथ की अपेक्षा कहीं अधिक मानव के ईश्वरोन्मुख गति की एक सतत प्रगतिशील परंपरा थी। हिन्दू धर्म में एक मात्र स्थिर और सुनिश्चित वस्तु है सामाजिक विधान, किन्तु तब भी हिन्दू धर्म का सार आध्यात्मिक अनुशासन है, सामाजिक अनुशासन नहीं। यहां वर्ण का शासन है, न कि चर्च का; परंतु वर्ण भी किसी मनुष्य को उसके विश्वासों के लिये दण्ड नहीं दे सकता, न वह विधर्मिता पर रोक लगा सकता है और न एक नये क्रान्तिकारी सिद्धान्त या नये आध्यात्मिक नेता का अनुसरण करने से उसे मना कर सकता है। यदि वह ईसाई या मुसलमान को समाज से बहिष्कृत करता है तो वह उसे धार्मिक विश्वास या आचार के कारण नहीं वरन इसलिये कि वे उसकी सामाजिक व्यवस्था और नियम को अमान्य करते हैं।

पश्चिम ने इस उग्र एवं सर्वथा युक्तिहीन विचार का पोषण किया है कि समस्त मानव जाति के लिये एक ही धर्म होना चाहिये। मानुषी तर्कहीनता की यह भद्दी रचना अत्यधिक क्रूरता और उग्र धर्मांधता की जननी‌ है। जब कि भारत के धर्म प्रधान मन की स्वतंत्रता, नमनीयता और सरलता ने धर्म को सदैव चर्चों के समान उन परंपराओं एवं स्वेच्छाचारी पोप राज्यों जैसी किसी चीज का सूत्रपात करने से रोका है। जो जाति जीवन के विकास के साथ असीम धार्मिक स्वतंत्रता दे सकती है, उसे उच्च धार्मिक क्षमता का श्रेय देना ही होगा। आंतरिक अनुभव की एक महान शक्ति ने इसे आरंभ से ही वह वस्तु दी थी जिसकी ओर पश्चिम का मन अंधों की तरह अग्रसर हो रहा है -वह वस्तु है 'विश्व -चेतना, विश्व दृष्टि।

भारतीय धर्म का निरूपण पश्चिमी‌बुद्धि की जानी हुई परिभाषाओं में से किसी के द्वारा भी नहीं किया जा सकता। एकमेव सत्य को अनेकों पार्श्वों से देखते हुए भारतीय धर्म ने किसी भी पार्श्व के लिये अपने द्वार बन्द नहीं किये. यह मत-विश्वासात्मक धर्म बिलकुल नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक संस्कृति की एक विशाल, बहुमुखी, सदा एकत्व लाने वाली और सदा प्रगतिशील एवं आत्म विस्तारशील प्रणाली है।

परंतु आखिरकार हिंदू धर्म है क्या ? भारतीय धर्म उच्चतम एवं विशालतम आध्यत्मिक अनुभव के तीन मूल तत्वों पर प्रतिष्ठित है : . उपनिषदों का 'एकमेवाद्वितीयं' जो अनंत है; . मानव बुद्धि इसे अनंत प्रकार के सूत्रों में‌ प्रकट कर सकती है; . इन शाश्वत अनंत को खोजना-- यही भारत के धार्मिक मन का प्रथम सार्वजनीन विश्वास है। एकमेव परमेश्वर अपने आपको अपने गुणों के रूप में नाना नामों और देवताओं में प्रकट करते हैं। हमारे ज्ञान ने उच्चतम सत्ता और हमारी भौतिक जीवन प्रणाली के बीच कोई खाई नहीं खोदी थी। भारतीय धर्म का सार ऐसे जीवन को लक्ष्य बनाना है जिससे हम अज्ञान का, जो इस आत्मज्ञान को हमारे मन से छुपाए रखता है, अतिक्रम करके अपने अंत:स्थित भगवान को जान सकें।

धर्म और आध्यात्मिकता का कार्य ईश्वर और मनुष्य में, अर्थात अव्यक्त सत्यचेतना के और अज्ञानी मन के बीच मध्यस्थता करना है। अधिक लोग जीवन का संपूर्ण बल बाह्य सत्ता पर ही देते हैं या बौद्धिक सत्य या नैतिक बुद्धि एवं इच्छा शक्ति या रसात्मक सौन्दर्य को पश्चिम की तरह अध्यात्मिकता समझने की भूल करते हैं। कुछ धर्म बाह्य जीवन के रूप के साथ सामंजस्य करने की अपेक्षा कहीं अधिक उससे विद्रोह करते है। ईसाई साधना की मुख्य प्रवृत्ति भौतिक जीवन को तुच्छ समझने की ही‌ नहीं अपितु हमारी प्रकृति की बौद्धिक प्यास को तिरस्कृत एवं अवरुद्ध करने और सौन्दर्य संबन्धी प्यास पर अविश्वास करने की‌ भी है। उनके लिये नैतिक भावना की अभिवृद्धि अध्यात्म जीवन की एकमात्र मानसिक आवश्यकता है।

एक अर्ध आलोकित आध्यात्मिक लहर ईसाइयत के रूप में, पश्चिम भर में फ़ैल गई थी, उसके होते हुए भी पश्चिमी सभ्यता की वास्तविक प्रवृत्ति बौद्धिक, तार्किक, लौकिक और यहां तक कि जड़वादी‌ ही रही। भारतीय समाज की संगठन शक्ति अपूर्व थी, जिसने अपने अर्थ और कामनावाले सांसारिक जीवन के सामाजिक सामंजस्य का विकास किया, उसने अपने कर्म का परिचालन सदा ही पद पद पर नैतिक और धार्मिक विधान के अनुसार किया; - परंतु इस बात को उसने आँखों से कभी ओझल नहीं किया कि आध्यात्मिक मोक्ष ही हमारे जीवन के प्रयास का उच्चतम शिखर है।

दुर्भाग्यवश भारतीय संस्कृति का ह्रास हुआ। यदि भारतीय संस्कृति को जीवित रखना है तो उसके विकास को केवल पौराणिक प्रणाली को फ़िर से प्रचलित करने में नहीं, वरन उपनिषदों की ओर मुड़ना होगा।

भारतीय संस्कृति के विकास की आधुनिक अवस्था की तैयारी दीर्घकाल से हो रही है। इसमें एक तो यह भावना है कि मनुष्य मात्र अपना जीवन परमात्मा के महान सत्य पर प्रतिष्ठित करे। दूसरी यह कि उस सत्ता तक मात्र आरोहण ही नहीं वरन भगवत्चेतना के अवरोहण द्वारा मानव-प्रकृति के दिव्य-प्रकृति में रूपांतरण को भी संभव करे। यदि भगवत चेतना उसकी सत्ता के अंगों में जरा भी चरितार्थ हो जाए तो वह मानव जीवन को एक दिव्य अधिजीवन में परिणित कर देगा। इस के लिये जनसाधारण को हर क्षण धार्मिक प्रभाव में रहना चाहिये। और यह हमारी सुखद परंपरा रही‌ है। हमारी संस्कृति की प्रणाली का ढाँचा एक त्रिविध चौपदी से गठित था : प्रथम वृत्त में जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ काम और मोक्ष। दूसरे वृत्त में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था, तीसरे वृत्त में जीवन के चार आश्रम - विद्यार्थी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और स्वतंत्र समाजातीत मनुष्य। इसीलिये भारतवासियों के लिये समस्त जीवन ही धर्म है।

आध्यात्मिक ज्ञान पर प्रतिष्ठित जीवन का संपूर्ण व्यवहार भारतीय संस्कृति की दृष्टि में धर्म कहलाता है, जिसमें नैतिकता का विशेष मह्त्व होता है। धर्म के जटिल जाल में सबसे पहले आता है सामाजिक विधान, क्योंकि मनुष्य का जीवन कहीं अधिक अनिवार्यरूप में समष्टि के लिये ही‌ है, यद्यपि सर्वाधिक अनिवार्य रूप में वह आत्मा परमात्मा के लिये है। तब भी वैराग्यरूपी उच्च तपस्या के रहते, मनुष्य की सौंदर्यप्रिय या यहां तक कि सुखभोगवादी प्रवृत्ति पर भी कोई रुकावट नहीं लगायी। काव्य, नाटक, गीत, नृत्य, संगीत को प्रस्तुत किया गया, और उसे भी आत्मा के उत्कर्ष के रूप में। अध्यात्म सिद्धि के लिये प्रमुखत: तीन मार्ग बनें - बुद्धिप्रधान के लिये ज्ञान योग; कर्मठ नैतिक के लिये कर्मयोग; और भावुक सौन्दर्यप्रेमी एवं सुखभोगवादी के लिये प्रेम तथा भक्ति योग की रचना की गयी थी।

उससे महान संस्कृति क्या हो सकती है जो यह मानती है कि मनुष्य सनातन और अनंत को केवल जान ही नहीं सकता वरन आत्मज्ञान के द्वारा आध्यात्मिक और दिव्य भी बना सकता है? किसी भी महान संस्कृति का संपूर्ण लक्ष्य यह होता है कि वह मनुष्य को ज्ञान की ओर ले जाए, शुभ और एक्त्व के साथ सुन्दरता और समस्वरता के साथ द्वारा जीना सिखाए।

विज्ञान द्वारा विपुल आर्थिक उत्पादन ही मनुष्य को उसका दास, अथवा आर्थिक व्यवस्था -रूपी शरीर का एक अंग बना देता है - तब हमें पूछने का अधिकार है क्या यही हमारी संपूर्ण सत्ता है, और सभ्यता का स्वस्थ या संपूर्ण वर्तमान एक ऐसी बुद्धिमान आसुरिक बर्बरता प्रतीत होता था जिसका कि जर्मनी एक अत्यंत प्रशंसित और सफ़ल नायक था। क्या भारत के लिये यह ठीक नहीं है कि वह पश्चिम के अनुभव से शिक्षा भले ग्रहण कर ले पर पश्चिम का अनुकरण न कर अपनी‌मूल भावना और संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ और अत्यंत मौलिक तत्वों को विकसित करे ? बहुत समय तक यह सत्य था, और मैं‌ कहूंगा कि अब और अधिक सत्य है, कि भारतीय का कर्तव्य यही रहा है कि वह सभ्य बनाने वाली अंग्रेज की डोर में बँधा हुआ एक बंदर बन कर उसके ढोल की आवाज पर नाचा करे।

शंकर के सिद्धान्त में एक प्रवृत्ति अपनी चरम पर पहुँच गई जिसने भारतीय मन पर गहरी छाप डाली और अवश्य ही कुछ समय के लिये उसने सांसारिक जीवन की निषेधात्मक दृष्टि को स्थिर करने और विशालतर भारतीय आदर्श को विकृत करने की चेष्टा की। परंतु उनका सिद्धान्त महान वेदान्तिक शास्त्रों से निकलने वाला कोई अनिवार्य परिणाम बिलकुल नहीं है।

आखिर जीवन का अर्थ क्या है, हम अत्यंत पूर्ण और महान जीवन किसे कहते हैं? जीवन निश्चित ही मनुष्य की आत्मा की सक्रिय आत्म-अभिव्यक्ति है, और विचार, सृजन, प्रेम और कर्म करना तथा सफ़लता प्राप्त करना उसके संकल्प ही हैं। यह भी संभव है कि जीवन यापन के सभी साधारण करणोपकरण और परिस्थितियां विद्यमान हों, पर यदि जीवन महान अर्थात आध्यात्मिक आशाओं, अभीप्साओं और आदर्शों के द्वारा ऊँचा न उठा हो तब हम कह सकते हैं कि वह समाज वास्तव में जीवित नहीं है।

शून्य, दशमलव तथा स्थानमूल्य की अवधारणाओं के बल पर गणित में, तथा चरक, सुश्रुत, (विमान शास्त्र के रचयिता) भरद्वाज मुनि, आर्य भट, भास्कराचार्य प्रथम एवं द्वितीय, नागार्जुन, वरह मिहिर, आदि आदि के बल पर विज्ञान में यह देश अग्रणी रहा है, साहित्य में वेद, उपनिषद, गीता हैं और सर्वाधिक महान और उदात्त महाकाव्य रामायण है; जीवन को अद्भुत पूर्णता से अभिव्यक्त करने वाला महाकाव्य महाभारत है, कालिदास, माघ, भास, भारवि, बाणभट्ट आदि की अनुपम कृतियां हैं, पाली, प्राकृत, तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियां भी हैं। तूफ़ानी सदियों के समस्त विध्वंस के बाद जो कुछ बचा है वह तथा भरत मुनि के अनुपम 'नाट्यशास्त्र, चाणक्य के अर्थशास्त्र, भारत की कलाओं की सुदीर्घ परंपरा भारत की श्रेष्ठता का उद्घोष करते हैं। वैदिक काल में शूद्रों में से ऋषि उत्पन्न हुए। बाद के युग में बुद्ध और महावीर से लेकर रामानुज, चैतन्य, नानक रामदास, और तुकाराम, और फ़िर विवेकानन्द् और दयानंद तक की अविच्छिन्न परंपरा है। प्रामाणिक इतिहास चन्द्रगुप्त, चाणक्य, अशोक और गुप्तवंशी सम्राटों के प्रभावशाली व्यक्तित्वों से प्रारंभ होता है। प्राचीन भारत में गणतंत्र और जनतंत्र थे। साम्राज्य निर्माण का दीर्घकालीन प्रयत्न, पठानों और मुगलों के उत्थान और पतन से सन्लग्न तीव्र संघर्ष, राजपूती वीरता का आश्चर्यजनक इतिहास, आदि है। हमारे शूद्रों में से सम्मानित संत प्रकट हुए, जिसे यूरोप का पतनशील काल ( डार्क मैडीवियल एजैज़) कहा जाता है, वह काल संत साहित्य की कृपा से भारत का स्वर्णकाल है।

अतएव यह कथन कि भारत जाति में अपनी संस्कृति के कारण जीवन, इच्छाशक्ति और क्रियाशीलता का अभाव है. एक षड़यंत्र है। एक अत्यंत विचित्र और झूठ बात यह है कि इस दोष का कारण जीवन के प्रति वैराग्य को माना गया है - भारत सनातन में इतना व्यस्त था कि उसने उसने समय की जानबूझकर उपेक्षा की। यह एक और मिथ्या गाथा है।. . . . औसत यूरोपीय मन एक अहंकारमय अस्तित्व पर भीषण आग्रह के साथ बल देता है। जो शार्लमान ईसाई बनाने के लिये सैक्सनों का संहार करता है, वह अशोक के पश्चाताप को कैसे समझ सकता है। भारत ने निर्वैयक्तिकता को अधिक महत्व प्रदान किया है। निर्वैयक्तिता सत्ता का अभाव नहीं वरन नदी बनने के स्थान पर उसकी सागर के समान समग्रता है। पूर्णताप्राप्त मनुष्य विश्वमय हो जाता है, वह सहानुभूति और एकता की भावना में प्राणिमात्र का आलिंगन करता है।

यह सत्य है कि भारत किऩ्हीं कारणों से गुलाम हुआ और उसका पतन हुआ। किन्तु जैसा कि ऊपर दर्शाया गया है, उसमें‌ सदा ही एक महान दिव्य आध्यात्मिकता रहती है जिसके बल पर वह पुन: अपनी उच्चस्थिति प्राप्त कर सकता है। किन्तु इसके लिये एक ही खतरा है कि पश्चिम की रंगीन चकाचौंध में फ़ँसकर, उनकी भाषा और भोगवादी संस्कृति की नकल करता हुआ भारतीय कहीं भूरा बंदर ही न बन जाए।