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Thursday, December 23, 2010

पंडित महा मना मदनमोहन मालवीय

पंडित महा मना मदनमोहन मालवीय

असाधारण महापुरुष पंडित महा मना मदन मोहन मालवीय का जन्म भारत के उत्तरप्रदेश प्रान्त के प्रयाग में 25 दिसम्बर सन 1861 को एक साधारण परिवार में हुआ था । इनके पिता का नाम ब्रजनाथ और माता का नाम भूनादेवी था । चूँकि ये लोग मालवा के मूल निवासी थे अस्तु मालवीय कहलाए ।
मदन मोहन मालवीय की प्राथमिक शिक्षा प्रयाग के ही श्री धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में हुई जहाँ सनातन धर्म की शिक्षा दी जाती थी । इसके बाद मालवीयजी ने 1879 में इलाहाबाद जिला स्कूल से एंट्रेंस की परीक्षा उत्तीर्ण की और म्योर सेंट्रल कालेज से एफ.ए. की । आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण मदनमोहन को कभी-कभी फीस के भी लाले पड़ जाते थे । इस आर्थिक विपन्नता के कारण बी.ए. करने के बाद ही मालवीयजी ने एक सरकारी विद्यालय में 40 रुपए मासिक वेतन पर अध्यापकी शुरु कर दी ।
अध्यापकी के दौरान ही मालवीयजी के हृदय में समाज-सेवा की लालसा जग गई । समाज-सेवा में लगे होने के साथ ही साथ 1885 में ये कांग्रेस में शामिल हो गए । इनके जुझारुपन व्यक्तित्व और जोरदार भाषण से लोग प्रभावित होने लगे । समाज-सेवा और राजनीति के साथ ही साथ मालवीयजी हिन्दुस्तान पत्र का संपादन भी करने लगे । बाद में मालवीयजी ने प्रयाग से ही अभ्युदय नामक एक साप्ताहिक पत्र भी निकाला । पत्रकारिता के प्रभाव और महत्व को समझते हुए मालवीयजी ने अपने कुछ सहयोगियों की सहायता से 1909 में एक अंग्रेजी दैनिक-पत्र लीडर भी निकालना शुरु किया । इसी दौरान इन्होंने एल.एल.बी. भी कर ली और वकालत भी शुरु कर दी । वकालत के क्षेत्र में मालवीयजी की सबसे बड़ी सफलता चौरीचौरा कांड के अभियुक्तों को फाँसी से बचा लेने की थी ।
राष्ट्र की सेवा के साथ ही साथ नवयुवकों के चरित्र-निर्माण के लिए और भारतीय संस्कृति की जीवंतता को बनाए रखने के लिए मालवीयजी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की । विश्वविद्यालय के निर्माण हेतु धन जुटाने के लिए वे भारत के कोने-कोने में गए । अपने आप को भारत का भिखारी माननेवाले इस महर्षि की मेहनत रंग लाई और 4 फरवरी 1916 को वसंतपंचमी के दिन वाइसराय लार्ड हार्डिंग्ज के द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव रखी गई । आज भी यह विश्वविद्यालय शिक्षा का एक विख्यात केंद्र है और तभी से पूरे विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैला रहा है ।
मालवीयजी देशप्रेम, सच्चाई और त्याग की प्रतिमूर्ति थे । एक मनीषी थे और थे माँ भारती के एक सच्चे सपूत । इस मनीषी को सदा दूसरों की चिंता सताती थी अस्तु दूसरों के विकास के लिए, लोगों के कष्टों को दूर करने के लिए ये सदा तत्पर रहते थे । इनका हृदय बड़ा कोमल और स्वच्छ था । दूसरे का कष्ट इनको व्यथित कर देता था । सन 1934 में दरभंगा में भूकम्प पीड़ितों की सेवा और सहायता इन्होंने जी-जान से की थी ।
कई लोग मदनमोहन की व्याख्या करते हुए कहते थे कि जिसे न मद हो न मोह, वह है मदनमोहन । इस मनीषी की महानता को नमन करते हुए महा, मना शब्द भी इनके नाम के आगे जुड़कर अपने आप के भाग्यशाली समझने लगे । गाँधीजी इन्हें नररत्न कहते थे और अपने को इनका पुजारी । माँ भारती का यह सच्चा सेवक और ज्ञान, सच्चाई का सूर्य 12 नवम्बर 1946 को सदा के लिए अस्त हो गया ।
madan mohan malaviya-जैसा कि महापुरुषों का लक्षण है पंडित मदन मोहन मालवीय को कभी भी किसी तरह  के पद या सम्मान का लालच नहीं रहा।
कलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर से एक बार उन्हें पत्र मिला कि विश्वविद्यालय उन्हें डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित करना चाहते है। कृपया  इसके लिए अपनी स्वीकृति दें। यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेने से उनके नाम के आगे डाक्टर  लगता जो कि पंडित से ज्यादा सम्मान उन्हें दिलाता।
लेकिन पंडित मदन मोहन मालवीय ने  प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए जवाब दिया कि पंडित की उपाधि उनके कुल  खानदान की विरासत है। इसे त्यागकर वे अपने पूर्वजों का अपमान करेंगे। इसलिए मैं डाक्टर की बजाय पंडित कहलाना ही अधिक पसंद करूंगा।”
इसी तरह जब अंग्रेजों ने उनकी विद्वता से प्रभावित होकर उन्हें ‘सर’ की उपाधि देना चाहा तो उन्होंने  कहा, ”मेरे लिए पंडित की उपाधि ही सर्वोपरि उपाधि है। एक ब्राह्मण परिवार में जन्म देकर यह मुझे ईश्वर ने प्रदान की है। मैं इसे त्याग कर उसके बंदे की दी गई उपाधि लेना नहीं चाहूंगा।”
इस महापुरुष, मनीषी, मंगलघट, महाधिवक्ता, महानायक, महासेवी, महादेशभक्त, महामहिम, महा मना मदनमोहन मालवीय को मेरा शत-शत नमन ।
देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल-तिलक संपादक युगदर्पण तिलक संपादक युगदर्पण!!

मनमोहनी मुखौटा व इच्छाशक्ति

युग दर्पण सम्पादकीय
 विगत 3 वर्षों से 2 जी व अन्य घोटाले हुए पर आंख बंद रखने व बचाव करनेवाले प्र.मं. डॉ. मनमोहन सिंह ने शुचिता का मुखौटा लगा ही लिया व बुराड़ी में अपने भाषण से हमें आभास दिला दिया कि भ्रष्टाचार अभी भी एक मुद्दा है और मनमोहन सिंह सरकार उसे समाप्त करने की इच्छुक है। कांग्रेस महाधिवेशन में प्रधानमंत्री ने सिद्धांतों की राजनीति करते हुए केवल भ्रष्टाचार की शंका पर त्यागपत्र देने की परम्परा बताई, यह जानकार खुशी हुई। यह भी आवाज़ आइ, हम विपक्ष की तरह नहीं है कि किसी राज्य में घोटाले पर घोटाले हों और मुख्यमंत्री पद पर बने रहें। जेपीसी की मांग पर एकजुट विपक्ष में दरार डालने के लिए प्रधानमंत्री ने लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने प्रस्तुत होने का दांव खेला। उन्होंने कहा कि`मैं साफतौर पर कहना चाहता हूं कि मेरे पास कुछ भी छिपाने को नहीं है।  प्रधानमंत्री पद को किसी भी तरह के संदेह से परे होना चाहिए। इसलिए पुरानी परम्परा न होते हुए भी मैं लोलेसमिति (पीएसी) के सामने प्रस्तुत होने को तैयार हूं। इस मनमोहनी मुखौटे ने तो मनमोह लिया किन्तु अब इसके पीछे छिपे वास्तविक रूप को भी देखें।'
  माना कि यहां सीधे सीधे प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं। किसी ने भी यह नहीं कहा कि डॉ. मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार के कृत्य किए हैं। जेपीसी की मांग 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर है। प्रश्न सीधा है, क्या मनमोहन सिंह सरकार पूरी ईमानदारी से इस घोटाले की जांच करवाने को तैयार है या नहीं? संसद भारत की सर्वोच्च जनता की अदालत है। सांसद इसीलिए भेजे जाते हैं कि जनता की आवाज को संसद में उठा सकें। जब संसद के बहुमत सदस्य चाहते हैं कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच जेपीसी करे तो सरकार को इसमें क्या आपत्ति है? हम प्रधानमंत्री जी से क्षमा चाहेंगे। अपने भाषण में उन्होंने प्रधानमंत्री पद की निष्ठा की महत्ता बताई, किन्तु प्रश्न निष्ठा का नहीं, नियत का है, इच्छाशक्ति का है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई की बातें कहना और ऐसा करने की इच्छाशक्ति दिखाने में अन्तर होता है।और यहाँ यह अन्तर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। 
डॉ. मनमोहन सिंह के इस कथन से विपरीत कि मात्र संदेह होने पर उनके नेताओं ने पद त्याग दिया, वास्तविकता यह है कि ए. राजा से तब त्यागपत्र लिया गया जब इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह गया था। जब मीडिया और विपक्ष राजा के विरुद्ध कार्रवाई की मांग कर रहा था, तब कांग्रेसी देश को यह समझाने में लगे थे कि राजा को त्यागपत्र देने की आवश्यकता क्यों नहीं है? हम डॉ. सिंह को याद दिलाना चाहेंगे कि आपने स्वयं भी राजा का बचाव किया था। शशि थरूर के मामले में भी ऐसा ही हुआ था और जहां तक अशोक चव्हाण की बात है वह तो रंगे हाथ पकड़े गए थे। विवाद को ठंडे बस्ते में डालने के प्रयास में कांग्रेस ने चव्हाण को हटाया था, न कि देश का हित ध्यान में रखकर। 
  लोलेस (पीएसी) के पास सीमित अधिकार होते हैं। सामान्यत: कार्यपालिका से जुड़े सरकारी लोग संबंधित फाइलें ले जाकर समिति को यह बताते हैं कि उसमें क्या प्रक्रिया अपनाई गई किस-किस ने क्या लिखा, कैसे क्या निर्णय हुआ। यदि प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है और प्रधानमंत्री को भी संदेह से परे रखना चाहिए, तो हम याद करा दें आरोपी अपनी जांच का मंच स्वयं नहीं चुनता प्रधानमंत्री ने यह कहकर अपना मंच स्वयं चुना कि वह पीएसी के समक्ष प्रस्तुत होने को तैयार हैं। लोलेस केवल कैग की रिपोर्ट पर अनुच्छेदवार टिप्पणियां दे सकती है जबकि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन ही पूरी तरह से राजनीतिक मुद्दा है। क्या प्रधानमंत्री देश को यह बताना चाहेंगे कि एक दागी मंत्री को 3 वर्ष मंत्रालय में बने रहने की अनुमति कैसे मिल गई और आज तक उसके विरुद्ध कोई भी सीधी कार्रवाई नहीं हुई? सर्वो. न्याया. ने भी यह टिप्पणी की। । 
इच्छाशक्ति की बात करते है। यदि केंद्र सरकार अपनी चौतरफा आलोचना के बाद चेत गई है तो फिर देश को यह बताया जाए कि सर्वो. न्याया. की प्रतिकूल टिप्पणियों के बाद भी केंद्रीय सतर्पता आयुक्त के पद पर आसीन एक ऐसा व्यक्ति क्यों है जो न केवल पामोलीन आयात घोटाले में लिप्त होने का आरोपी है बल्कि अभियुक्त भी है? प्रश्न यह भी है कि मुसआ. (सीवीसी) के रूप में पीजे थॉमस की नियुक्ति सर्वो. न्याया. की ओर से निर्धारित प्रक्रिया के तहत क्यों नहीं की गई? एक दागदार छवि वाले व्यक्ति को मुसआ. बनाकर प्रधानमंत्री यह दावा कैसे कर सकते है कि वह भ्रष्टाचार के सख्त विरोधी है? यदि स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच कर रहे केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की निगरानी उच्चतम न्यायालय को करनी पड़ रही है तो क्या इसका एक अर्थ यह नहीं कि स्वयं शीर्ष अदालत भी यह मान रही है कि सीबीआई सरकार से प्रभावित हो सकती है? किसी राज्य में गलती का अनुसरण केंद्र कर रहा है तो गुज. व बिहार के विकास को आदर्श बनाया होता। । क्या सरकार ने स्वेच्छा से किसी भ्रष्ट तत्व के विरुद्ध कार्रवाई की, ऐसा कोई एक भी उदाहरण सरकार दे सकती है? 
बात इच्छाशक्ति की है। आज तक अफजल गुरु को फांसी क्यों नहीं दी गई? आतंकवाद को क्या यह सरकार रोकना चाहती है? लगता तो नहीं। वोट बैंक की चाह में देश की सुरक्षा से भी समझौता किया जा रहा है। इस सरकार का एक मात्र उद्देश्य किसी भी तरह से सत्ता में बने रहना है और जिससे उसके सत्ता कि नीव अस्थिर हो वह कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती तो गठबंधन के बहाने बन जाते हैं। 2जी स्पेक्ट्रम में भी यही प्राथमिकता है। सरकार अपने गठबंधन साथियों, विश्वस्त नौकरशाहों सहित सरकारी टुकड़ों पर पलते मीडिया के अपने उन पिट्ठुओं तथा मोटा चंदा देनेवाले उन उद्योगपतियों के पापों को ढकना चाहती है, जिनके साथ उसकी साठ गांठ हैं। । फिर भी प्रधानमंत्री कहते हैं कि मैं भ्रष्टाचार का सख्त विरोधी हूं। क्या सच मुच ?
डॉ. मनमोहन सिंहदेश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!

Saturday, December 18, 2010

काकोरी कांड (क्या भारत आजाद है ?)

काकोरी कांड (क्या भारत आजाद है ?)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों द्वारा चलाए जा रहे इस संग्राम
को गति देने के लिए धन की तत्काल व्यवस्था की आवश्यकता के कारण शाहजहाँपुर में हुई बैठक
के मध्य राजेन्द्रनाथ ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई।
इस योजना को कार्यरूप देने के लिए राजेन्द्रनाथ ने 9 अगस्त 1925 को
लखनऊ के काकोरी से छूटी 8 डाउन ट्रेन पर क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ और
ठाकुर रोशन सिंह व 19 अन्य सहयोगियों के सहयोग से धावा बोल दिया।
बाद में अंग्रेजी शासन ने सभी 23 क्रांतिकारियों पर काकोरी कांड के नाम पर
सशस्त्र युद्ध छेड़ने तथा खजाना लूटने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ,
रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा रोशन सिंह को फाँसी की सजा सुनाई गई।
!! 
आज है, 19 दिसंबर 1927 का वह दिन जब 'काकोरी कांड' के क्रांतिकारियों को फांसी दी गयी.
आइये उनका स्मरण करते हैं !! 

काकोरी जो लखनऊ जिले में एक छोटा सा गाँव हैं. स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने भेजी
बंदूके और धन रोकने हेतु अंग्रेजो की ट्रेन को यहाँ लूटा गया इसलिए इसका
नाम काकोरी ट्रेन डकैती पड़ा. सबसे पहले राजेंद्र लाहिड़ी को 17 दिसंबर सन
1927 को गोंडा जिले (उत्तर प्रदेश) में फांसी दी गयी. ट्रेन को लूटने में
कुल 10 क्रन्तिकारी साथी थे. किन्तु जब गिरफ्तारियां हुई तो 40 से भी अधिक
लोग पकडे गए. कुछ तो निर्दोष थे. अशफाक उल्ला और बख्शी लाल तुरंत नहीं
पकडे जा सके. अंग्रेजी शासन ने इस मुकदमे में 10 लाख रुपये से भी अधिक व्यय किया.
बनवारी लाल ने गद्दारी की और इकबालिया गवाह बन गया. इसने सभी
क्रांतिकारियों को पकड़वाने में अंग्रेजो की सहायता की. इसे भी 5 वर्ष की
सजा हुई. 18 महीने तक मुक़दमा चला पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र
लाहिड़ी और रौशन सिंह को फांसी की सजा हुई. राजेंद्र लाहिड़ी की 'अपील को
प्रीवी काउन्सिल' ने अस्वीकार कर दिया. शचींद्र नाथ सान्याल को कालेपानी की
सजा हुई. बाद में पकडे गए अभियुक्तों में अशफाक उल्ला को फैजाबाद जिले में 19 दिसंबर को
फांसी हुई और बख्शी लाल को कालेपानी की सजा हुई.
...अशफाक उल्ला बड़ी ख़ुशी के साथ कुरान - शरीफ का बस्ता कंधे से टांगे हुए हाजियों
( जो हज करने जाते हैं ) कि भांति 'लवेक' कहते और कलाम पढ़ते हुए फांसी के
तख्ते के पास गए. तख्ते को उन्होंने चूमा और सामने खड़ी भीड़ से कहा ( जो
उनकी फांसी को देखने आई हुई थी ) "मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं
रगें, मेरे ऊपर जो इलज़ाम लगाया गया वह गलत हैं. खुदा के यहाँ मेरा इन्साफ
होगा" ! इतना कह कर उन्होंने फांसी के फंदे को गले में डाला और खुदा का नाम
लेते हुए दुनिया से कूच कर गए.
उनके रिश्तेदार, चाहने वाले शव को शाहजहांपुर ले जाना चाहते थे.
बड़ी मिन्नत करने के बाद अनुमति मिली इनका
शव जब लखनऊ स्टेशन पर उतारा गया , तब कुछ लोगो को देखने का अवसर मिला.
चेहरे पर 10 घंटे के बाद भी बड़ी शांति और मधुरता थी बस आँखों के नीचे कुछ
पीलापन था. शेष चेहरा तो ऐसा सजीव था जैसे कि अभी अभी नींद आई
हैं, यह नींद अनंत थी. अशफाक कवि भी थे उन्होंने मरने से पहले शेर लिखा था
- "तंग आकर हम भी उनके जुल्म के बेदाद से !
चल दिए अदम ज़िन्दाने फैजाबाद से !!
ऐसे क्रांतिकारियों को मेरा कोटि कोटि प्रणाम !"
प्रश्न उठता है क्या भारत आजाद है? अंग्रेज़ी शासन व इस शासन में अंतर है ?
इसे देख दोनों प्रश्नों के उत्तर में कोई भी कहेगा - नहीं 

अंग्रेज़ी शासन में भी देश भक्तों व उनके समर्थकों तक को प्रताड़ित किया जाता था,
तथा शासन समर्थकों को राय साहब की पदवी व पुरुस्कार मिलते थे ?
आज भी शर्मनिरपेक्ष शासन में देश भक्तों को भगवा आतंक कह प्रताड़ित तथा
अफज़ल व आतंकियों को समर्थन, कश्मीर के अल कायदा के कुख्यात आतंकवादी
 
गुलाम मुहम्मद मीर को राष्ट्र की अति विशिष्ठ सेवाओं के लिए " पद्म श्री " सम्मान ?
देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!

Saturday, November 13, 2010

इंटरनेशनल ब्‍लॉगर सम्‍मेलन एक विस्‍तृत रिपोर्ट

दिल से मिले दिल और खुशबू फैल गई

13 नवंबर 2010 को दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित , NATIONAL INSTITUE OF NATIONAL AFFAIRS ,प्रवासी टुडे के तत्वाधान में हिंदी संसार एवं नुक्कड ( सामूहिक ब्लॉग ) द्वारा आयोजित हिंदी ब्लॉग विमर्श सफ़लतापूर्वक ,संपन्न हुआ । अपराह्न तीन बजे से लेकर पांच बजे तक आयोजित सम्मेलन के मुख्य अतिथि प्रवासी भारतीय कनाडा निवासी प्रमुख ब्लॉगर व साहित्यकार ,समीर लाल उर्फ़ उडनतश्तरी ( इनके ब्लॉग का नाम ) थे और विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रख्यात व्‍यंग्‍यकार  श्री जनमेजय और विख्यात तकनीक विशेषज्ञ बालेन्दु दाधीच जी ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई । कार्यक्रम के  संयोजक की भूमिका,  साहित्यकार अविनाश वाचस्पति ( नुक्कड ,सामूहिक ब्लॉग के मॉडरेटर ) ने निभाई तो संचालन का जिम्मा अनिल जोशी ने, जो हिंदी संसार एवं अक्षरम् से जुडे हैं ने सफलतापूर्वक संभाला । इनके अलावा सुश्री सरोज जी ने भी इस  कार्यक्रम के संयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।इस कार्यक्रम में दिल्ली एवं आसपास के लगभग चालीस ब्लॉगरों ने शिरकत की तो वहीं विख्यात मीडिया रिसर्च स्कॉलर  और टेक्‍नीनिया इंस्‍टीच्‍यूट आफ मॉस कम्‍युनिकेशन के विभाग प्रमुख सुधीर रिंटन के नेतृत्व में लगभग पच्चीस मीडिया शिक्षार्थियों ने अपनी सक्रिय भागीदारी की । संगोष्ठी में हिस्सा लेने वाले ब्लॉगरों में सुश्री सुनीता शानूडॉ वेद व्‍यथित ,सुरेश यादव ,    नारी सामूहिक ब्लॉग की मॉडरेटर सुश्री रचना पाखी पत्रिका की उपसंपादक सुश्री प्रतिभा कुशवाहा और मयंक सक्सेना  के अलावा लगभग चालीस प्रसिद्ध ब्लॉगरों ,सती सक्सेना ,डॉ टी एस दराल अरविंद चतुर्वेदी एम वर्मा रतन सिंह शेखावत पद्म सिंह नीरज जाट शाहनवाज सिद्दिकी , विनोद पांडेय, राजीव एवं संजू तनेजा तारकेश्वर गिरि अजय कुमार झा कनिष्क कश्यप कौशल मिश्रा नवीन चंद्र जोशी मोहिन्द कुमार निर्मल वै पंकंज नारायण, दीपक बाबा अपूर्वा बजाज के अतिरिक्‍त सुश्री रिया नागपाल,जो ब्लॉगिंग पर ही रिसर्च कर रही हैं ,  ने आभासी परिचय को प्रत्यक्ष अनुभव में बदलते हुए न सिर्फ़ एक दूसरे को जाना बल्कि ब्लॉगजगत के वर्तमान और भविष्य को लेकर आपस में विचार विमर्श भी किया । 

कार्यक्रम का संचालन करते हुए अनिल जोशी ने पहले तीनों माननीय अतिथियों को पुष्प गुच्छ प्रदान करवाते हुए उनका हार्दिक स्वागत किया । कार्यक्रम के प्रारंभ में विख्यात मीडियाकर्मी एवं ब्लॉगर खुशदीप सहगल जी के पूज्य पिताजी के हाल हीं  हुए निधन पर दुख प्रकट करते हुए दो मिनट का मौन रखा । इसके पश्चात औपचारिक परिचय और संक्षिप्त विचार आदान प्रदान का दौर चला । स्वागत भाषण में अविनाश वाचस्पति ने कहा कि सार्थक ब्‍लॉगिंग आखिर है क्‍या, यही सवाल सबके सामने है। जहां तक मेरा विचार है कि ध्‍वस्‍त हो रहे जीवन मूल्‍यों, सामाजिकता, जनसेवा की भावना को पूरा रचनात्‍मक सकारात्‍मकता के साथ आपस में साझा करना, जिसके मानवता की बेहतरी की ओर तेज कदमों से आगे बढ़ा जा सके। । विशेष रूप से आमंत्रित तकनीक विशेषज्ञ बालेन्दु दाधीच ने अपनी बात रखते हुए हिंदी ब्लॉगिंग की वर्तमान स्थिति रुझान समस्याएं संभावानाओं आदि पर खुल कर बोलते हुए न सिर्फ़ ब्लॉगर्स को आंकडों की भाषा में बताया समझाया, बल्कि कई बारीकियों को भी साझा किया ।  बीच में बीच में अल्पाहार और चाय कॉफ़ी का दौर भी चलता रहा । गगनांचल और व्‍यंग्‍ययात्रा के संपादक प्रेम जनमेजय ने कहा कि वे इस क्षेत्र में नए हैं, इसलिए सबका साथ अपेक्षित है । प्रवासी भारतीय और हिंदी ब्लॉगिंग के सुपर स्टार माने जाने वाले अत्यधिक लोकप्रिय समीर लाल ने अपने मस्तमौला अंदाज़ में बोलते हुए न सिर्फ़ अपने अनुभव बांटे बल्कि वहां मौजूद ब्लॉगरों एवं शिक्षार्थियों की जिज्ञासा का समाधान भी किया। सभी सहमत थे कि आने वाले समय में हिंदी ब्लॉगिंग एक बडी ताकत के रूप में उभर कर सामने आ रहा है । इसलिए ब्लॉगिंग करने वाले हर ब्लॉगर को एक जिम्मेदारी का स्वत: हसास होना चाहिए । लगभग तीन घंटे तक चली इस संगोष्ठी में सौहार्दपूर्ण वातावरण में सभी ने ब्लॉगिंग के विभिन्न आयामों पर चर्चा की । वर्षांत पर और कई संगोष्ठियों के आयोजन की सूचना अजय कुमार झा ने दी है

बाल दिवस

बाल दिवस पर सभी विद्यार्थियों को मंगलकामनायें

Sunday, November 7, 2010

अमरीका के राष्ट्रपति की यात्रा

अमरीका के राष्ट्रपति की यात्रा
आजकल अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत की यात्रा पर हैं या कहें कि शुद्ध व्यापर यात्रा पर हैं.
     अमरीका विकसित देशों कि श्रेणी आता है, लेकिन उसे आज भारत की जरुरत है ताकि उनके देश के लोगों को रोज़गार मिले उन्हें भी खाली हाथों के लिए काम की दरकार है. एक विकसित देश होने के वावजूद वो लोग इस बात को समझ रहे हैं और अपने नागरिकों की चिंता में उस देश का राष्ट्रपति व्यापार के रूप में युद्ध और बारूद बेचने आया है . हम युद्धपोत खरीदें, हम बमगोले खरीदें, हम उनकी बेकार तकनीक खरीदें और उनके कचरे को खरीदकर अपने देश का बंटाधार करें, लुटिया दूबों दें .
     अमरीका चाहता है कि हम ईरान के मुद्दे पर उसका साथ दें, लेकिन पाकिस्तान का मुद्दा अपने आप सुलझाये . वह चीन से सीधे निपट नहीं सकते इसलिए वे चाहते हैं हम चीन से लड़ें, पाकिस्तान से लड़ें ताकि वे अपने हथियार बेच सकें. शांति उनका नारा हो सकता है उनकी मंशा नहीं हो सकती.
      ऐसी सरकार से क्या अपेक्षा रखें जो अपने हित भी नहीं साध सकती. ओबामा भारत में रहते हुए भी पाकिस्तान की तरफदारी करता है, पाकिस्तान को स्थिर करने के लिए हथियारों की वकालत करता है. वह मध्यस्थ बनना चाहता है , लेकिन ये कहकर साधू का रूप धारण किये है कि हम फैसला नहीं थोपेंगे दोनों देशों पर. पाकिस्तान का साथ उसके लिए मजबूरी है क्योंकि अफगानिस्तान में उसके अपने हित है.
     इस देश को और जनता को सोचना चाहिए की देश और जनहित में क्या है? देश अपनी समस्याओं से जूझ रहा है, समस्या हमारी है और समाधान भी हमें ही ढूंढ़ना होगा. उन्हें हमारे मरते लोग नज़र नहीं आते. उन्हें अपने ऊपर हुए हमले याद हैं हमारे २५ हज़ार लोग जो भोपालगैस कांड में मरे उनके दोषियों को बचाने में उन्हें शर्म नहीं आती , उनकी मानवता एक मुखौटा है, हमने इसके पीछे की क्रूरता का दंश बहुत बार झेला है. हमें अपने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को मजबूत करना चाहिए ना कि उनके पिछलग्गुओं के संगठन को. हमने परमाणु विस्फोट किये, प्रतिबन्ध लगे हमारी उन्नति उन्हें नहीं भाती है. हम उन दुर्दिनो से भी अपने प्रयासों से उभरे हैं और आगे बढे हैं.
      अपने विभिन्न भाषणों में ओबामा भारत के गुण गा रहा है. अमरीका कि तरक्की में भारतीयों कि सेवा याद आ रही है, लेकिन outsourcing के मुद्दे पर वह भारतीयों कि नौकरियों पर तलवार क्यूँ चलाते हैं ? तब क्या भारत के हित याद नहीं रहते? ये सब शब्द जाल है इस से ज्यादा और कुछ नहीं. आज उन्हें पढ़े लिखे भारतीय मजदूर कम दामों पर दरकार हैं, लेकिन वे अपने लोगों कि सेवा बेचेंगे महंगे दामों में . क्यूँ खरीदें हम ? क्या हमारे बच्चे बेरोजगार नहीं हैं ? क्या हमें भर पेट खाने का हक नहीं है ? वे कहते उनके यहाँ सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मिलती है, लेकिन कभी देखें आधे से ज्यादा विदेशी अध्यापक उनके लोगों को पढाते हैं, जिनमें ज्यादातर एशिया महाद्वीप से सम्बन्ध रखते हैं ?
     आज भारत कि कम लागत कि उन्नत कृषि तकनीक उनकी आँखों में खटकती है, वे हमें पहले ही उन्नत बीजों के नाम पर और रासायनिक खाद के रूप में, हमारी कृषि को लीलने वाला भस्मासुरी तोहफा दे चुके हैं, हमारी जमीनों को बंजर बनाकर . वे हमारे शून्य से प्रभावित हैं, उन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी याद आते हैं अपने राष्ट्रपति बनने के पीछे , वे उन्हें आदर्श मानते हैं, लेकिन कौन सा काम किया अहिंसा का ?
    उन्हें सिर्फ अपना मकसद साधना है, उन्हें भारत से कुछ लेना देना नहीं है. वास्तव में आज अमरीका हमें भीख देने कि दशा में नहीं है बल्कि भीख मांग रहा है. इस देश के बलि राजा ( प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ) से ये अपेक्षा है कि दान समझ कर देना . सावधान रहना भिखारी चालाक है (इन्द्र ) जैसा . वह प्यार से मनुहार से बस लूटना चाहता है. दोस्तों देश पाताल में ना चला जाये इस लिए दोस्तों जागते रहो. चिंतन।
 अब आवाज़ का हथियार उठाना होगा हम कोई घास नहीं ये बताना होगा 
 तुम्हें कह दिया अपना मुहाफ़िज़ हमने क्यूँ गैर के सामने सिर झुकाना होगा 
 बहुत पी लिया लहू हमारा अपनों नेपेश गैरों को लबरेज़लहू पैमाना होगा 
 डाके को भी तिजारत का नाम देते हैंमुल्क के हर शख्स को जगाना होगा 
 बने फिरते हैं दुनिया के खैरख्वाह वो कितने पानी में उनको दिखाना होगा 
 उनके कहने पे चलेंगे तो बर्बादी है पांव हर एक फूंककर बढ़ाना होगा 
 केदारनाथ "कादर"
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पणदेश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!

Sunday, October 17, 2010

मानवता हितार्थ के निहितार्थ?

मानवता हितार्थ के निहितार्थ?
वामपंथियों ने स्वांग रचाया, पहन मुखौटा मानवता का;
ये ही तो देश को बाँट रहे हैं, पहन मुखौटा मानवता का !!
मैं अच्छा हूँ बुरा विरोधी, कहने को तो सब ही कहते हैं;
नकली चेहरों के पीछे किन्तु, जो असली चेहरे रहते हैं;
आओ अन्दर झांक के देखें,और सच की पहचान करें;
कौन है मानवतावादी और, शत्रु कौन, इसकी जाँच करें!
मानवतावादी बनकर जो हमको, प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं;
चर- अचर, प्रकृति व पाषाण, यहाँ सारे ही पूजे जाते हैं;
है केवल हिन्दू ही जो मानता, विश्व को एक परिवार सा;
किसके कण कण में प्रेम बसा, यह विश्व है सारा जानता!
यही प्रेम जो हमारी शक्ति है कभी दुर्बलता न बन जाये;
अहिंसक होने का अर्थ कहीं, कायरता ही न बन जाये ?
इसीलिए जब भी शक्ति की, हम पूजा करने लग जाते हैं;
तब कुछ मूरख व शत्रु हमारे, दोनों थर्राने लग जाते हैं!
शत्रु भय से व मूरख भ्रम से, चिल्लाते जो देख आइना;
मानवता के रक्षक को ही वो, मानवता का शत्रु बतलाते;
नहीं शत्रु हम किसी देश के, किसी धर्म औ मानवता के;
चाहते इस सोच की रक्षा हेतु, हिंदुत्व को रखें बचाके !
अमेरिका में यदि अमरीकी ही अस्तित्व पे संकट आए;
52 मुस्लिम देशों में ही जब, इस्लाम को कुचला जाये;
तब जो हो सकता है दुनिया में, वो भारत में हो जाये;
जब हिन्दू के अस्तित्व पर भारत में ही संकट छाये!
जब हिन्दू के अस्तित्व पर भारत में ही संकट छाये!!देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!

Saturday, September 18, 2010

शर्मनिरपेक्ष नेताओं को समर्पित शर्मनिरपेक्षता तिलक राज रेलन

शर्मनिरपेक्ष नेताओं को समर्पित   शर्मनिरपेक्षता     तिलक राज रेलन
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

जो तिरंगा है देश का मेरे, जिसको हमने स्वयं बनाया था;
हिन्दू हित की कटौती करने को, 3 रंगों से वो सजाया था;
जिसकी रक्षा को प्राणों से बड़ा मान, सेना दे देती बलिदान;
उस झण्डे को जलाते जो, और करते हों उसका अपमान;
शर्मनिरपेक्ष बने वोटों के कारण, साथ ऐसों का दिया करते हैं;
मानवता का दम भरते हैं, क्यों फिर भी शर्म नहीं आती?
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष....
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

वो देश को आग लगाते हैं, हम उनपे खज़ाना लुटाते हैं;
वो खून की नदियाँ बहाते हैं, हम उन्हें बचाने आते हैं;
वो सेना पर गुर्राते हैं, हम सेना को अपराधी बताते हैं;
वो स्वर्ग को नरक बनाते हैं, हम उनका स्वर्ग बसाते हैं;
उनके अपराधों की सजा को,रोक क़े हम दिखलाते हैं;
अपने इस देश द्रोह पर भी, हमको है शर्म नहीं आती!
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष...
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

इन आतंकी व जिहादों पर हम गाँधी के बन्दर बन जाते;
कोई इन पर आँच नहीं आए, हम खून का रंग हैं बतलाते;
(सबके खून का रंग लाल है इनको मत मारो)
अपराधी इन्हें बताने पर, अपराधी का कोई धर्म नहीं होता;
रंग यदि आतंक का है, भगवा रंग बताने में हमको संकोच नहीं होता;
अपराधी को मासूम बताके, राष्ट्र भक्तों को अपराधी;
अपने ऐसे दुष्कर्मों पर, क्यों शर्म नहीं मुझको आती;
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष....
कारनामे घृणित हों कितने भी, शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

47 में उसने जो माँगा वह देकर भी, अब क्या देना बाकि है?
देश के सब संसाधन पर उनका अधिकार, अब भी बाकि है;
टेक्स हमसे लेकर हज उनको करवाते, धर्म यात्रा टेक्स अब भी बाकि है;
पूरे देश के खून से पाला जिस कश्मीर को 60 वर्ष;
थाली में सजा कर उनको अर्पित करना अब भी बाकि है;
फिर भी मैं देश भक्त हूँ, यह कहते शर्म मुझको मगर नहीं आती!
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष...
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

यह तो काले कारनामों का,एक बिंदु ही है दिखलाया;
शर्मनिरपेक्षता के नाम पर कैसे है देश को भरमाया?
यह बतलाना अभी शेष है, अभी हमने कहाँ है बतलाया?
हमारा राष्ट्र वाद और वसुधैव कुटुम्बकम एक ही थे;
फिर ये सेकुलरवाद का मुखौटा क्यों है बनवाया?
क्या है चालबाजी, यह अब भी तुमको समझ नहीं आती ?
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष...
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !! शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

 देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!

Saturday, September 11, 2010

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु  मैकाले व वामपंथियों से प्रभावित कुशिक्षा से पीड़ित समाज का एक वर्ग, जिसे देश की श्रेष्ठ संस्कृति, आदर्श, मान्यताएं, परम्पराएँ, संस्कारों का ज्ञान नहीं है अथवा स्वीकारने की नहीं नकारने की शिक्षा में पाले होने से असहजता का अनुभव होता है! उनकी हर बात आत्मग्लानी की ही होती है! स्वगौरव की बात को काटना उनकी प्रवृति बन चुकी है! उनका विकास स्वार्थ परक भौतिक विकास है, समाज शक्ति का उसमें कोई स्थान नहीं है! देश की श्रेष्ठ संस्कृति, परम्परा व स्वगौरव की बात उन्हें समझ नहीं आती! 
 किसी सुन्दर चित्र पर कोई गन्दगी या कीचड़ के छींटे पड़ जाएँ तो उस चित्र का क्या दोष? हमारी सभ्यता  "विश्व के मानव ही नहीं चर अचर से,प्रकृति व सृष्टि के कण कण से प्यार " सिखाती है..असभ्यता के प्रदुषण से प्रदूषित हो गई है, शोधित होने के बाद फिर चमकेगी, किन्तु हमारे दुष्ट स्वार्थी नेता उसे और प्रदूषित करने में लगे हैं, देश को बेचा जा रहा है, घोर संकट की घडी है, आत्मग्लानी का भाव हमे इस संकट से उबरने नहीं देगा. मैकाले व वामपंथियों ने इस देश को आत्मग्लानी ही दी है, हम उसका अनुसरण नहीं निराकरण करें, देश सुधार की पहली शर्त यही है, देश भक्ति भी यही है !
भारत जब विश्वगुरु की शक्ति जागृत करेगा, विश्व का कल्याण हो जायेगा !
 देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!

Thursday, July 22, 2010

चंद्रशेखर आजाद (23 जुलाई 1906 - 27 फरवरी 1931) - शत शत नमन!

 



सभी देश भक्तों को हमारे प्रेरणा पुंज पत. चंदर शेखर आजाद के 96 वे जन्म दिवस की शुभकामनाएं
चंद्रशेखर आजाद (23 जुलाई 1906 - 27 फरवरी 1931) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अत्यंत सम्मानित और लोकप्रिय क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे। वे भगत सिंह के अनन्यतम साथियों में से थे। असहयोग आंदोलन समाप्‍त होने के बाद चंद्रशेखर आजाद की विचारधारा में परिवर्तन आ गया और वे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिंदुस्‍तान सोशल रिपब्लिकन आर्मी में सम्मिलित हो गए। उन्‍होंने कई क्रांतिकारी गतिविधियों जैसे काकोरी काण्ड तथा सांडर्स-वध को पूर्णता दी। 

जन्म तथा प्रारंभिक जीवन

चंद्रशेखर आजाद का जन्‍म मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले भावरा गाँव में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ। उस समय भावरा अलीराजपुर राज्य की एक तहसील थी। आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी संवत 1956 के अकाल के समय अपने निवास उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव को छोडकर पहले अलीराजपुर राज्य में रहे और फिर भावरा में बस गए। यहीं चंद्रशेखर का जन्म हुआ। वे अपने माता पिता की पाँचवीं और अंतिम संतान थे। उनके भाई बहन दीर्घायु नहीं हुए। वे ही अपने माता पिता की एकमात्र संतान बच रहे। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। पितामह मूलतः कानपुर जिले के राउत मसबानपुर के निकट भॉती ग्राम के निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण तिवारी वंश के थे। 

संस्कारों की धरोहर

चन्द्रशेखर आजाद ने अपने स्वभाव के बहुत से गुण अपने पिता पं0 सीताराम तिवारी से प्राप्त किए। तिवारी जी साहसी, स्वाभिमानी, हठी और वचन के पक्के थे। वे न दूसरों से अन्याय कर सकते थे और न स्वयं अन्याय सहन कर सकते थे। भावरा में उन्हें एक सरकारी बगीचे में चौकीदारी का काम मिला। भूखे भले ही बैठे रहें पर बगीचे से एक भी फल तोड़कर न तो स्वयं खाते थे और न ही किसी को खाने देते थे। एक बार तहसीलदार ने बगीचे से फल तुड़वा लिए तो तिवारी जी बिना पैसे दिए फल तुड़वाने पर तहसीलदार से झगड़ा करने को तैयार हो गए। इसी जिद में उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। एक बार तिवारी जी की पत्नी पडोसी के यहाँ से नमक माँग लाईं इस पर तिवारी जी ने उन्हें खूब डाँटा और 4 दिन तक सबने बिना नमक के भोजन किया। ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण आजाद ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे।

आजाद का बाल्य-काल

1919 मे हुए जलियां वाला बाग नरसंहार ने उन्हें काफी व्यथित किया 1921 मे जब महात्‍मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया तो उन्होने उसमे सक्रिय योगदान किया। यहीं पर उनका नाम आज़ाद प्रसिद्ध हुआ । इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे bandi हुए और उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली। सजा देने वाले मजिस्ट्रेट से उनका संवाद कुछ इस तरह रहा -
तुम्हारा नाम ? आज़ाद
पिता का नाम? स्वाधीन
तुम्हारा घर? जेलखाना
मजिस्ट्रेट ने जब 15 बेंत की सजा दी तो अपने नंगे बदन पर लगे हर बेंत के साथ वे चिल्लाते - महात्मा गांधी की जय। बेंत खाने के बाद 3 आने की जो राशि पट्टी आदि के लिए उन्हें दी गई थी, को उन्होंने जेलर के ऊपर वापस फेंका और लहूलुहान होने के बाद भी अपने एक दोस्त डॉक्टर के यहाँ जाकर मरहमपट्टी करवायी।
सत्याग्रह आन्दोलन के मध्य जब फरवरी 1922 में चौराचौरी की घटना को आधार बनाकर गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो भगतसिंह की bhanti आज़ाद का भी काँग्रेस से मोह भंग हो गया और वे 1923 में शचिन्द्र नाथ सान्याल द्वारा उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को लेकर बनाए गए दलहिन्दुस्तानी प्रजातात्रिक संघ (एच आर ए) में शामिल हो गए। इस संगठन ने जब गाँवों में अमीर घरों पर डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाया जा सके तो तय किया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का तमंचा छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बाद bhi आज़ाद ने अपने niyam  के कारण उसपर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के 8 सदस्यों, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल शामिल थे, की बड़ी दुर्दशा हुई क्योंकि पूरे गाँव ने उनपर हमला कर दिया था। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का nirnay किया। 1 जनवरी 1925 को दल ने देशभर में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रांतिकारी) बांटा जिसमें दल की नीतियों का ullekh था। इस parche में रूसी क्रांति की चर्चा मिलती है और इसके लेखक सम्भवतः शचीन्द्रनाथ सान्याल थे।

अंग्रेजों की नजर में

इस संघ की नीतियों के अनुसार 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया गया । लेकिन इससे पहले ही अशफ़ाक उल्ला खान ने ऐसी घटनाओं का विरोध किया था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जाएगा। और ऐसा ही हुआ। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं - रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह तथा राजेन्द्र सिंह  लाहिड़ी को क्रमशः 19 और 17 दिसम्बर 1927 को फाँसी पर चढ़ाकर शहीद कर दिया। इस मुकदमे के दौरान दल निष्क्रिय रहा और एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन यह योजना पूरी न हो सकी। 8-9 सितम्बर को दल का पुनर्गठन किया गया जिसका नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एशोसिएसन रखा गया। इसके गठन का ढाँचा भगत सिंह ने तैयार किया था पर इसे आज़ाद का पूर्ण समर्थन प्राप्त था।

चरम सक्रियता

आज़ाद के प्रशंसकों में पंडित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम bhi था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट जो स्वराज भवन में हुई थी उसका ullekh नेहरू ने 'फासीवदी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। यद्यपि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को रूस में समाजवाद के प्रशिक्षण के लिए भेजने के लिए एक हजार रूपये दिये थे जिनमें से 448 रूपये आज़ाद की शहादत के samay उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर 1928-31 के बीच शहादत का ऐसा kram चला कि दल लगभग बिखर सा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगतसिंह एसेम्बली में बम फेंकने गए तो आज़ाद पर दल ka pura dayitva aa gaya । सांडर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और फिर बाद में उन्हें छुड़ाने ka pura prayas भी उन्होंने kiya । आज़ाद ke sukhav के viruddh खिलाफ जाकर यशपाल ने 23 दिसम्बर 1929 को दिल्ली के samip वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को 28 मई 1930 को भगवतीचरण वोहरा की बमपरीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना खटाई में पड़ गई थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरू की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गाँधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे । झाँसी में रुद्रनारायण, सदाशिव मुल्कापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर मे शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को 1 दिसम्बर 1930 को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में जाते samay शहीद कर दिया था। ve yadi jivit hote to aaj 95 varsh ke hote. unke janam divas ki sabhi desh bhakton ko badhaai.

शहादत

25 फरवरी 1931 से आज़ाद इलाहाबाद में थे और यशपाल रूस भेजे जाने सम्बन्धी योजनाओं को अन्तिम रूप दे रहे थे। 27 फरवरी को जब वे अल्फ्रेड पार्क (जिसका नाम अब आज़ाद पार्क कर दिया गया है) में सुखदेव के साथ किसी चर्चा में व्यस्त थे तो किसी मुखविर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। इसी मुठभेड़ में आज़ाद शहीद हुए।
आज़ाद की शहादत की सूचना जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने sabhi काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिए उनका अन्तिम संस्कार कर दिया । बाद में शाम के samay उनकी अस्थियाँ लेकर युवकों का एक जुलूस निकला और सभा हुई। सभा को शचिन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीरामबोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को जवाहरलाल नेहरू ने भी सम्बोधित किया। इससे पूर्व 6 फरवरी 1927 को मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे क्योंकि उनके देहान्त से क्रांतिकारियों ने अपना एक सच्चा हमदर्द खो दिया था।

व्यक्तिगत जीवन

आजाद एक देशभक्त थे। अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों से सामना करते samay जब उनकी पिस्तौल में antim गोली बची तो उसको उन्होंने svayam पर चला कर शहादत दी थी। उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के लिए धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद डेरे के 5 लाख की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाए पर वहाँ जाकर उन्हें पता चला कि साधु मरणासन्न नहीं था और वे वापस आ गए। रूसी क्रान्तिकारी वेरा किग्नर की कहानियों से वे बहुत प्रभावित थे और उनके पास हिन्दी में लेनिन की लिखी एक pustak  भी थी। हंलांकि वे svayam पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने मे adhik आनन्दित होते थे। जब वे आजीविका के लिए बम्बई गए थे तो उन्होंने कई फिल्में देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था पर बाद में वे फिल्मो के प्रति आकर्षित नहीं हुए।
चंद्रशेखर आजाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारंभ किया गया आंदोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। आजाद की शहादत के 16 वर्षों के बाद 15 अगस्‍त सन् 1947 को भारत की आजादी का उनका सपना पूरा हुआ।
मेरे आदर्श ,मेरी प्रेरणा चन्द्रशेखर आजाद पर लेखन के लिए आभारी हूँ! पत्रकारिता के गटर को साफ करने का प्रयास करते दशक होने को है, आज आप जैसा साथी मिला प्रसन्नता हुई अभी ब्लॉग जगत में संपूर्ण सृष्टि की जानकारी को खंडबद्ध कर विषयानुसार 25 ब्लॉग बनाये हैं yugdarpan.blogspot.com तिलक संपादक युग दर्पण 09911111611,  mihirbhoj.blogspot.com
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