हमारे एक पत्रकार बंधू हैं पंकज झा आज उनका लेख देखा ! जिस विषय को लेकर युगदर्पण एक विकल्प के रूप में खड़ा करने का प्रयास 10 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ !कई अवसरों पर लिखा भी गया ! उसे अंतरताने पर उठाने की सोच महाजाल बनाने का प्रयास कर रहा था ! मेरे 25 ब्लाग की शृंखला में सत्य दर्पण सामूहिक महाचर्चा के लिए ही रखा था, उसके लिए आवश्यक उपकरण Gadgets क्या लगाये जाएँ, चल रहा था कि मेरा मूल विषय पंकज जी ने छेड़ दिया आभारी हूँ ! इस विषय पर निश्चित सामूहिक महाचर्चा होनी चाहिए! कुछ अंश साभार प्रस्तुत हैं -
एक संस्कृत श्लोक है अति दानी बलि राजा, अति गर्वेण रावण, अति सुंदरी सीता, अति सर्वत्र वर्जयेत, अंग्रेजी में भी कहा गया है एकसिस एवरीथिंग इज बैड. तो इस उद्धरण के बहाने मीडिया द्वारा अतिवादी तत्वों को दिए जा रहे प्रश्रय पर भी गौर फरमाना समीचीन होगा.
खुलेआम नक्सली प्रवक्ता बन लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न इस सबसे बड़ी चुनौती का औचित्य निरूपण के लिए अपना मंच प्रदान करता है. इस संभंध में एक विवादास्पद लेखिका के लिखे लंबे-लंबे आलेख को प्रकाशित-प्रसारित प्रकाशित करना निश्चय ही उचित नहीं है.
नक्सलियों के महिमामंडल को, आखिर क्या कहा जाय इसे?
आप सोंचे, प्रचार की यह कैसी भूख? उच्छृंखलता की कैसी हद? लोकतंत्र के साथ यह कैसी बदतमीजी? बाजारूपन की यह कैसी मजबूरी जो अपने ही बाप-दादाओं के खून से लाल हुए हाथ को मंच प्रदान कर रहा है. दुखद यह कि ऐसा सब कुछ “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” के संवैधानिक अधिकार की आड़ में हो रहा है. अफ़सोस यह है कि जिन विचारों के द्वारा मानव को सभ्यतम बनाने का प्रयास किया गया था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, धर्मनिर्पेक्षता, समानता, सांप्रदायिक सद्भाव आदि शब्दों का ही दुरूपयोग कर आज का मीडिया विशेष ने इस तरह के उग्रवाद को प्रोत्साहित कर समाज की नाक में दम कर रखा है. sz
देश के सार्वाधिक उपेक्षित बस्तर में चल रहे इस कुकृत्य पर आजतक किसी भी बाहरी मीडिया ने तवज्जो देना उचित नहीं समझा. अभी हाल ही में 76 जवानों की शहादत के बावजूद सानिया-शोएब प्रकरण ही महत्वपूर्ण दिखा इन दुकानदारों को. कुछ मीडिया ने ज्यादा तवज्जो दी भी तो नक्सलियों के प्रचारक समूहों, वामपंथियों द्वारा पहनाये गये लाल चश्मों से देखकर ही.खास कर सबसे ज्यादा इस सन्दर्भ में अरुंधती राय द्वारा इस हमलों की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले आलेख की ही चर्चा हुई. तो सापेक्ष भाव से एक बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विमर्श और उसका विश्लेषण आवश्यक है.
अपनी अभिव्यक्तियों को कुछ मर्यादाओं के अधीन रखें अथवा चुप ही रहना बेहतर. किसी ने कहा है कि “कह देने से दुख आधा हो जाता है और सह लेने से पूरा खत्म हो जाता है”. अगर पत्रकारीय प्रशिक्षण की भाषा का इस्तेमाल करूँ तो आपकी अभिव्यक्ति भी क्या,क्यूं, कैसे, किस तरह, किसको, किस लिए इस 6 ककार के अधीन ही होनी चाहिए. इस मर्यादा से रहित बयान, भाषण या लेखन ही अतिवादिता की श्रेणी में आता है.
मीडिया का वीभत्स राग अनुच्छेद 19 (1) ‘‘क’’ किसी प्रेस के लिए नहीं है. यह आम नागरिक को मिली स्वतंत्रता है और इसका उपयोग मीडिया को एक आम सामान्य नागरिक बनकर ही करना चाहिए और उसके हरेक कृत्य को आम नागरिक का तंत्र यानि लोकतंत्र के प्रति ही जिम्मेदार होना चाहिए. लोकतंत्र, लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति सम्मान, चुने हुए प्रतिनिधि के साथ तमीज से पेश आना भी इसकी शर्त होनी चाहिए. जैसा छत्तीसगढ़ का ही एक अखबार बार-बार एक चुने हुए मुख्यमंत्री को तो ‘‘जल्लाद’’ और ‘‘ऐसा राक्षस जो मरता भी नहीं है’’ संबोधन देता था और ठीक उसी समय नक्सल प्रवक्ता तक सलाम पहुंचाकर उसे जीते जी आदरांजलि प्रदान करता था. इस तरह की बेजा हरकतों से बचकर ही आप एक आम नागरिक की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सेदार हो सकते हैं. साथ ही राज्य की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि यदि स्व अनुशासन नहीं लागू कर पाये ऐसा कोई मीडिया समूह तो उसे सभ्य बनाने के लिए संवैधानिक उपचार करें. यदि परिस्थिति विशेष में बनाये गये कानून को छोड़ भी दिया जाए तो भी संविधान ही राज्य को ऐसा अधिकार प्रदान करती है कि वह उच्छृंखल आदतों के गुलामों को दंड द्वारा भी वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र करे. उन्हें यह ध्यान दिलाये कि विभिन्न शर्तों के अधीन दी गई यह महान स्वतंत्रता आपके बड़बोलापन के लिए नहीं है, आपको उसी अनुच्छेद (19) ‘‘2’’ से मुंह मोडऩे नहीं दिया जाएगा कि आप “राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, शिष्टïचार और सदाचार के खिलाफ” कुछ लिखें या बोलें. आप किसी का मानहानि करें , भारत की अखंडता या संप्रभुता को नुकसान पहुंचायें. ‘‘बिहार बनाम शैलबाला देवी’’ मामले में न्यायालय का स्पष्ट मत था कि ‘‘ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति या ऐसे भाषण देना जो लोगों को हत्या जैसे अपराध करने के लिए उकसाने या प्रोत्साहन देने वाले हों, अनुच्छेद 19 (2) के अधीन प्रतिबंध लगाये जाने के युक्तियुक्त आधार होंगे।’’ न केवल प्रतिबंध लगाने के वरन ‘‘संतोष सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन’’ मामले में न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि ‘‘ऐसे प्रत्येक भाषण को जिसमें राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देने की प्रवृत्ति हो, दंडनीय बनाया जा सकता है.’’ आशय यह कि संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ढोल पीटते समय आप उसपर लगायी गयी मर्यादा को अनदेखा करने का अमर्यादित आचरण नहीं कर सकते. इसके अलावा आपकी अभिव्यक्ति, दंड प्रक्रिया की धारा ‘499’ से भी बंधा हुआ है और प्रेस भी इससे बाहर नहीं है. प्रिंटर्स मैसूर बनाम असिस्टैण्ट कमिश्नर मामले में स्पष्ट कहा गया है कि प्रेस भी इस मानहानि कानून से बंधा हुआ है.
इसके अलावा संविधान के 16 वें संसोधन द्वारा यह स्थापित किया गया है कि आप भारत की एकता और अखंडता को चुनौती नहीं दे सकते. ‘‘यानि यदि भारत और चीन का युद्घ चल रहा हो तो आपको “चीन के चेयरमेन हमारे चेयरमेन हैं’’ कहने से बलपूर्वक रोका जाएगा. हर बार आपको आतंकियों को मंच प्रदान करते हुए, उन्हें सम्मानित करते हुए, जनप्रतिनिधियों को अपमानित करते हुए, उनके विरूद्घ घृणा फैलाते हुए, नक्सलवाद का समर्थन करते हुए, अपने आलेखों द्वारा ‘‘कानून हाथ में लेने’’ का आव्हान करते हुए उपरोक्त का ख्याल रखना ही होगा। स्वैच्छिक या दंड के डर से आपको अपनी जुबान पर लगाम रखना ही होगा. मीठा-मीठा गप्प-गप्प करवा-करवा थूँ-थूँ नहीं चलेगा. संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का रसास्वादन करते हुए आपको 19 (2) की ‘‘दवा’’ लेनी ही होगी.
आपको महात्मा गांधी के शब्द याद रखने ही होंगे कि ‘‘आजादी का मतलब उच्छृंखलता नहीं है. आजादी का अर्थ है स्वैच्छिक संयम, अनुशासन और कानून के शासन को स्वेच्छा से स्वीकार करना.’’
भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक देश की मिटटी की सुगंध, भारतचौपाल!